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शुक्रवार, 9 मार्च 2012

दधिमती ( मार्च २०१२ )

दधिमती ( मार्च २०१२ )


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शनिवार, 3 मार्च 2012

देने का सुख


देने का सुख


[आलेख मूलतः दधिमती पत्रिका के सम्पादकीय के लिए लिखा गया और तदनुसार प्रकाशित भी हुआ ! कालांतर में निरंतर चिंतन से विषय विकसित विस्तारित व ज्यादा स्पष्ट होकर वर्तमान स्वरुप में आप के समक्ष है व इस में विषय से सम्बद्ध अन्य पहलुओं को शामिल किया गया है, जो सम्पादकीय में कई सीमाओं के चलते छूट गए थे! कहना ना होगा कि लेख गंभीर पाठकों के लिए है!]




यह विश्व  वस्तुतः देने की उज्जवल  एवं गौरवशाली परम्परा पर टिका हुआ है ! सूर्य हमें गुनगुनी और जीवनदायनी शुभ्र धूप देता है तो चन्द्रमा हमें शीतल चांदनी ! वसुधा बिना किसी अपेक्षा के अपनी छाती चीर कर हमारी उदरपूर्ति के लिए अन्न और अपने गर्भ से बहु उपयोगी अनमोल खनिज देती है, तो एक पैर पर हठ योगी की भांति खड़े वृक्ष हमें हमारा जीवन सुखद और आराम दायक बनाने के लिए उदार भाव से अपनी अर्जित निधियां हमें लुटा देतें हैं ! देने का भाव उदात्त और उदार मानसिकता का प्रथम लक्षण है !  (यदि देने के नाम पर किसी को दुःख देने का भाव ना हो तो )                           


देने वाला लेने वाले की तुलना में न सिर्फ दुनियादारी में एवं पारंपरिक रूप से बड़ा माना जाता है बल्कि  अपेक्षाकृत ऊंचे एवं ठोस नैतिक धरातल पर खडा दिखता है !लेने का भाव मन में आते ही नैतिक पतन का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होने लगता है ! इसके परिणाम के रूप में आत्मबल एवं पुरुषार्थ भाव दोनों का ह्रास होने लगता है ! लेने के भाव वालों अर्थात याचकों को कभी शिखर छूते नहीं देखा गया और मुक्त हस्त देने वालों को कभी अभावग्रस्त और दयनीय स्थिति में नहीं देखा गया ! कूप (कुआ) उदार भाव से अपनी अर्जित व संचित निधि (जल )का विसर्जन करने से  कंगाल नहीं होता,प्रकृति स्वतः ही विसर्जन के अनुपात में पुनः जल अर्जन की व्यवस्था कर देती है ! इसके विपरीत  यदि कूप जल विसर्जन न करे तो इस से कूप की जल समृद्धि का स्तर कभी बढ़ता नहीं है,  हाँ दीर्घ काल में कूप के जल का विसर्जन न किया जाए तो उसका जल सड़ कर अपेय अवश्य हो जाता है ! अपने जीवन में कई बार मिला कर अपने वजन के बराबर रक्तदान करने वाले को कभी रक्ताल्पता  का शिकार होते नहीं देखा गया ! वजह,   उदार प्रकृति उसकी रक्त की हुयी क्षति को अल्प समय में ही पूर्ति कर देती है ! बल्कि देने अर्थात दानशीलता के उदात्त एवं उदार भाव का  अपूर्व  गरिमामय तेज उसके चहरे पर अवश्य देखा जा सकता है ! इसके विपरीत अपने जीवन में कभी भी रक्तदान न करने वाले को कभी असाधारण स्वास्थ्य का धनी नहीं देखा गया ! इसका अर्थ यह हुआ कि  ईश्वर या प्रकृति  भी  अपनी निधियां  हमारी हथेली पर आशीर्वाद स्वरुप रखना चाहती  है किन्तु उसके लिए उचित अवसर एवं समय की प्रतीक्षा करती है ! और ऐसा करने के लिए सही  वक्त होता है जब हथेली किसी को देने के लिए खुली हो उसी  हथेली को  ठीक उसी समय कृपानिधान भी अपना प्रसाद जो कि किसी को देने के लिए खुली हुयी हथेली पर रख देते है  ! अपनी मुट्ठी भींच कर रखने वाले कृपण की हथेली पर दया सागर  ईश्वर कुछ रखना चाहे तो भी किधर से रखे ? हथेली खुली है पर याचक की, तो इस  खुली हथेली पर रखना तो प्रभु इसलिए उचित नहीं समझते की इस से  पुरुषार्थ की मान मर्यादा घटती है ! तब ही तो यह कहावत मशहूर है- "  ईश्वर भी उन पुरुषार्थियों की ही मदद करते है जो अपनी मदद खुद करने को तत्पर एवं प्रवृत होते हैं ! "


देने के भाव वाले की सोच बड़ी होती है तो उसके उद्यम,प्रयास व पुरुषार्थ भी बड़े होते है और तदनुसार परिणाम भी बड़े प्राप्त होते है ! लेने के भाव वाले अर्थात  याचक का ( या देने का उदार भाव ना रखने वाले के ) सरोकार सिर्फ स्वयं अर्थात स्व तक ही केन्द्रित होते है उसे अपने या गिने चुने निकट के स्व जनों की उदर पूर्ति की ही चिंता  रहती है, परिणामतः वह  (अति लालची प्रवृति वाले को अपवाद स्वरुप माने) छोटे लक्ष्य, अपनी उदर पूर्ति को लेकर लघु परिणामपरक प्रयास ही करेगा ! जबकि उदार व देने के भाव वाले तत्पर दानी को स्व के दायरे से बाहर निकल कर परहित के लिए चिंतन व प्रयास करना पड़ता है, जो स्वाभाविक रूप से बड़ा ही होगा, और वृहत परिणाम परक ही होगा !



देने का भाव,विचार या संकल्प मन में करते ही व्यक्ति के ह्रदय में व मनो मष्तिष्क में एक रासायनिक परिवर्तन होता है,जो भले ही अल्प समय के लिए ही हो,पर भीतर के  नकारात्मक मनोभावों को  प्रतिस्थापित कर उसके स्थान पर सकारात्मक  व आनंद दायी मनोभावों के समुच्चय से परिपूरित कर देता है ! जैसे स्नानघर में लोटे से स्नान करने वाला जलाशय में तैरने, एवं  प्रसव पीड़ा झेल कर  प्राप्त किये गए मातृत्व के सुख से  बाँझ स्त्री अनजानी और वंचित होती है,ठीक वैसे ही लेने की कामना वाला याचक और उसका ही सहोदर दान क़ी बजाय प्राण देना उचित समझने वाला कृपण (याचक और कृपण में भला अंतर ही कितना है ?) दोनों देने के अद्भुत सुख और दिव्य आनंद से वंचित होते हैं ! निस्संदेह ये समृद्धि एवं सम्पन्नता के पर्वत शिखर पर ही क्यों ना बैठे हो, पर दानशील व्यक्ति से कैसे भी श्रेष्ठ नहीं हो सकते ! इन के घर आँगन में लोट पोट होकर सम्पूर्ण सुवर्ण मय शरीर क़ी कामना रखने वाला नेवला संभवतः अपना जो वर्तमान  आधा सुवर्णमय शरीर है, को भी खो सकता है ! हाँ, एक अर्थ में याचक उदार दान शील व्यक्ति से बाजी मार लेता है, जब वह यह कहता है कि आखिर हम  याचक है तो ही उदार व दानी का अस्तित्व और महत्त्व है ! हालाँकि यह विनोदपूर्ण परिकल्पना मात्र ही है पर सोचिये अगर कोई याचक ही नहीं होगा तो काहे के दानी और दानवीर ?

दान का उद्देश्य दान दाता के लिए पुण्य कमाना या देने का सुख लूटना हो सकता है किन्तु इस के एक अन्य पहलू को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि दान का उद्देश्य  अकर्मन्य   एवं नाकारा लोगों की फ़ौज खडी  करना न हो  ! हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सक्षम को दान देना उसके पुरुषार्थ भाव को कम करने का कारण हो सकता है ! किसी को एक दम नाकारा एवं निठल्ला बनाना हो तो उसकी हथेली पर बिना मांगे अनवरत कुछ ना कुछ रखते रहें,धीरे धीरे उसके भीतर का पुरुषार्थ भाव समाप्त होकर उसका स्थान  दैन्य भाव ले लेगा ! आप देखेंगे कि एक अच्छा भला श्रमजीवी अब एक परजीवी या याचक वृति पर निर्भर रहने वाला जीव बन गया है! जैसे जंग लोहे को एवं दीमक लकड़ी को धीरे धीरे खा जाते है वैसे ही दान मिलने की प्रत्याशा एवं इस पर निर्भरता धीरे धीरे व्यक्ति के भीतर याचक वृति विकसित करके उसके स्वाभिमान एवं पुरुषार्थ भाव को खा जाती है! उसके चिंतन के दायरे में अपनी जीविकोपार्जन हेतु विकल्प अब श्रम एवं पुरुषार्थ नहीं या अल्प मात्रा में है व याचना ही निर्भर रहने योग्य एक मात्र विकल्प बच रहा है! ऐसा कई बार देखा गया है कि ऐसे परजीवी व सबल सक्षम व्यक्ति (याचक) भी बिना प्रयास व उद्यम के वृति मिलने की आशा में दान दाता के द्वार पर याचकों की पंक्ति  में खड़े दिखते है व इसको अर्थात याचकों की पंक्ति में खड़े होने को अपना पूर्ण कालिक व्यवसाय मानते है ! उनका स्व विकसित सूचना तंत्र भी सदैव  टोह लेता रहता है तो इस बात की ही  कि सदाव्रत कहाँ बंट रहा है, न कि इस बात की कि मुझे जीविकोपार्जन हेतु काम  कहाँ मिल सकता है ! पुरुषार्थ, आत्म निर्भरता एवं स्वाभिमान तीनो अन्योन्याश्रित मनोभाव है व तीनों एक साथ ही रहते है! जिस व्यक्ति के यहाँ से एक का निष्क्रमण हुआ तो बाकी स्वतः ही वहां से निकल पड़ते है! अब उस व्यक्ति के पास दीनता, पर निर्भरता, मिथ्याभिमान याचना वृति आदि के लिए निरापद आवास है! व्यक्ति हो या संस्था, समाज एवं राष्ट्र सभी के लिए यही सर्व मान्य सिद्धांत लागू होता है! सरकारी योजना नरेगा इस बात को पुष्ट करने के लिए सटीक उदाहरण है कि सरकारी दान मिलने  की आशा में परिश्रम करके तीन गुना कमा सकने में सक्षम व्यक्ति भी अल्प परिश्रम से या बिना परिश्रम किये मिलने वाली वृति के लिए अपनी क्षमता के साथ अन्याय करता है !


दान तब ही सार्थक है जब सुपात्र को दिया जाए ! अपात्र को दिया दान दोहरा नुकसान  करता है ! प्रथमतः  समाज के सक्षम व उत्पादक व्यक्ति को नाकारा बनाता है दूसरे एक वास्तविक जरूरत मंद जो मदद या दान का वास्तविक हकदार है, के अवसर को अवरुद्ध करता है ! मेरा व्यक्तिगत मत तो यह है कि एक पुरुषार्थी व्यक्ति आजीवन परिश्रम कर के अपनी संतान एवं परिजनों के लिए पर्याप्त  संसाधन छोड़ कर मरता है तो वह भी एक तरह का दान ही है और वह भी अभिशाप हो सकता है, यदि उसके वारिसों को इस से बजाय  पुरुषार्थ के ,पिता  द्वारा अर्जित धन  से मौज करने की ही प्रेरणा मिले ! यह  कहावत इस बात के सन्दर्भ में बहुत प्रासंगिक व समाचीन जान पड़ती है कि - "पूत कपूत तो क्यूँ धन संचै,पूत सपूत तो क्यों धन संचै "!  साहसी व समझदार पिता होगा तो अपनी भावी पीढी के लिए अकर्मण्यता का मार्ग प्रशस्त करने वाली  विपुल सम्पति छोड़ने की अपेक्षा उनमे संघर्ष करने व उसकी आंच सहने की क्षमता, पुरुषार्थ का स्वभाव  अपने आप को मजबूती से खड़े करने व रखने की योग्यता को विकसित करके छोड़ना ज्यादा श्रेष्ठ समझेगा ! जिस बाप ने अपनी अगली पीढी को तपा कर कर्मठ,पुरुषार्थी और स्वाभिमानी नहीं बनाया और अगली पीढी बैठी खा सके इतना धनार्जन कर के संचित छोड़ दिया उस की आगामी पीढी का क्या हुआ इसके कई उदाहरणनजर पसार कर देखने से   मिल जायेंगे !



यह तथ्य भी  निरपेक्ष सत्य नहीं है क़ि याचक सदैव  दानी से निकृष्ट ही होते हैं !परोपकार के लिए लेने क़ी कामना करने वाला याचक श्रेष्ठ, आदरणीय व पूजनीय होता है ! परोपकार के लिए याचना करने वाला एवं झोली फैलाने वाला मेरी दृष्टि में तो दाता से कहीं बढ़ कर आदरणीय है क्यों कि वह लोक या पर हित से अनुप्राणित होकर अपने स्वाभिमान को एवं एवं याचना जन्य हो सकने वाले अपमान की संभावना को दरकिनार कर याचना करने का साहस जुटाता है ! सागर अथाह जल राशी का स्वामी है किन्तु खारे और अनुपयोगी जल का ! ये परोपकारी मेघ ही है जो इन से याचक बन कर खारा जल लेकर लोकहितार्थ सारा का सारा जल मीठा बना कर पुनर्वितरण कर देते हैं ! यदि कोई परोपकार एवं लोकहित से अनुप्राणित  याचक दाता के  पास आये वह पूजनीय,  सादर स्वागत  व आभार के योग्य है ! इतिहास ऐसे अनेकानेक उदाहरणों से भरा पडा है कि किसी महान आत्मा ने लोक हितार्थ अपने अभिमान को तज कर झोली उठायी और लोक हित के लिए अमूल्य एवं उपयोगी निधियों का सृजन कर डाला ! ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, महामना मदनमोहन मालवीय इस तथ्य के जीवंत उदाहरण है कि उन्होंने लोकहित से अनुप्राणित होकर झोली उठायी और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय जैसी भव्य शिक्षण संस्था खड़ी कर दी !  यह एक कड़वा सच है कि सामान्यतः व्यक्ति  भोग विलास वं कुटैव पोषण  के लिए ऋण ले लेता है किन्तु समृद्ध एवं सक्षम होने के बावजूद परोपकार के लिए आगे बढ़ कर स्वैच्छा से दान नहीं देता ! यहाँ परोपकार के लिए याचना करने वाला व्यक्ति प्रेरक कारक की भूमिका अदा करता है ! ऐसा करके  वह दाता को उसके धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, दान  का अवसर जो उपलब्ध करवाता है, जो कि धन की ज्यादा संभावित गति भोग एवं नाश से श्रेष्ठ है !

जब प्रसंग उदारता पूर्वक देने वालों अर्थात दानी महापुरुषों का  हो, तो स्वतः ही चर्चा के केंद्र में राजा बलि,राजा कर्ण,राजा शिवि जैसे महापुरुष  आ जाते है !  इन की दानशीलता के पीछे कारण निजी  संकल्पबद्धता, निजी वैचारिक आग्रह या प्रण हो सकता है ! क्षीण सी संभावना इन में यश की कामना एवं दानी के रूप में अमर कीर्ति अर्जित करना भी हो सकती है ! किन्तु पौराणिक इतिहास में एक ऋषि  का  उदाहरण विरला ही है क्यों कि उनके दान  में ऐसा कोई भाव या कामना दृष्टिगोचर या प्रतीत नहीं होती,  या यों कहें कि यह त्याग का उदाहरण  उदारता एवं दान शीलता की पराकाष्ठा एवं चरम है इन महर्षि दधीचि  का दान, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी  ! इन  का दान इसलिए सर्वाधिक उदार एवं एवं उदात्त है क्यों कि इस के पीछे ज़रा भी यश की कामना नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से लोक कल्याण एवं लोक रक्षा का भाव है ! इस मत को हमें मानना पडेगा कि विश्व में यश और कीर्ति ने उन्ही लोगों का तत्परता पूर्वक वरण किया है जिन्होंने बिना अपना नैतिक धरातल छोड़े यश और कीर्ति की उपेक्षा और अनदेखी की है ! दान,देने का उदार भाव एवं  देने के सुख को केंद्र में रख कर कर लिखे इस आलेख में  ऐसे महान ऋषि दधीचि को मेरा सादर नमन ! 

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