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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

परमार्थ परम धर्म है

-देवदत्त दाधीच "छोटी खाटू वाले"
                  


जग  में जीवन श्रेष्ठ  वही जो फूलों सा मुस्काता  है
अपने गुण सौरभ से जग के कण-कण को महकाता है।
जग तो एक सराय अनोखी,  सुख-दुख इसमें हैं भरपूर
सुख देने से सुख मिलता हैदुख दे तो दुःख से हो चूर।
ये कुछ पल की जिन्दगी हैजाना सबको  है इक रोज
पल का नहीं  ठिकाना तेरा क्यों करता  बरसों की सोच।



मनुष्य जीवन बड़े भाग्य से मिला है, इसका सदुपयोग करो। 

''बड़े भाग्य मानुस तन पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा।'' 


      चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि हमने भारत जैसे धार्मिकआध्यात्मिकसांस्कृतिक राष्ट्र में जन्म लिया है और पर उपकार करना हमारे रग-रग में व्याप्त हैअतः जीवन सफल करने के लिए तकलीफजदा व्यक्ति की मदद करकेचाहे वह किसी प्रकार की तकलीफ होयह कार्य करना चाहिए। “भारत भूमि ते मनुज जनम लेसार्थक करना तो कर उपकार। ”  दुःखी व जरूरतमन्द की सेवा से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। ''परहित सरिस धर्म नहीं भाईपर पीड़ा सम नहीं अधमाई। '' रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी जी ने लिखा है - दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुख पहुंचाने के समान कोई पाप (नीचता) नहीं है। हमारे वेदों-पुराणों का भी सार यही है। हमारा देश धार्मिक मान्यताओं वाला देश है। यहां पाप और पुण्य की परिभाषा सभी जानते हैं। दूसरों की भलाई करना पुण्य और कष्ट देना पाप है। महाभारत व पुराणों में भी वेद-व्यास जी ने कहा है - ''अष्टादश  पुराणेशु व्यासस्य वचन द्वयमपरोपकारः पुण्यायपापाय पर-पीड़कम्।'' श्री रविन्द्रनाथ टैगोर ने भी कहा है यदि मनुष्य निरन्तर सुखी रहना चाहता है तो उसे परोपकार के लिए जीवित रहना है। कविवर रहीम जी ने भी कहा है - दूसरों की भलाई करने व सुख पहुंचाने वाले को ठीक उसी प्रकार का लाभ मिलता हैजैसे मेहन्दी बांटने वाले को स्वयं मेहन्दी का रंग लग जाता है - ''जो रहीम सुख होत हैउपकारी के संगबांटण वाले को लगे जो मेहन्दी के रंग '' राजस्थान के लोक साहित्य में भी परमार्थ की शिक्षा दी गई है। ''सरूवरतरूवर संतजन चौथा बरसण मेहपरमारथ के कारणेचारों धारी देह''। अतः दूसरों के कष्ट को दूर करने का निरन्तर प्रयास करना चाहिए। ''तनमनधन कर दीजिये निसिदिन पर उपकारयही सार नर देह मेंवाद-विवाद विसार''। अतः सज्जन लोग सम्पत्ति का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए ही करते हैं। रहीमदास जी ने कहा है ''तरूवर फल नहीं खात हैसरवर पिये न पानकह रहीम परकाज हितसम्पत्ति संचहि सुजान।'' महाकवि माघ ने भी उपकार के लिए लिखा है कि ''सज्जन स्वभाव से ही सदा सभी प्राणियों के उपकार के लिए प्रयत्न करते हैं।'' कबीरदास जी ने कहा है



''तुलसी पंछिन के पीये, घटे ना सरिता नीर।
 दान दिये धन ना घटे जो सहाय रघुवीर।''

      नीति सम्राट आचार्य चाणक्य ने परोपकार करने की शिक्षा दी है - ''परोपकरणं येषां जागर्ति सताम्। नश्यन्ति विपदेस्तेषां सम्पदस्युः पदै पदै।'' जिस मनुष्य के हृदय में परोपकार, भलाई बसी हुई है, वहां विपत्ति आ ही नहीं सकती। वहां तो नित्य समृद्धि ही आती है। सन्त नरसी मेहता ने भी भजन में कहा है - ''वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ पराई जाणे रे।'' गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ''चार वेद षटशास्त्र में बात लिखी है दोय। सुख दीने सुख होत है, दुःख दीने दुःख होय'' महात्मा गांधी ने कहा है कि ''उपकार करने की वृत्ति रखने वाला संसार में कभी दुखी नहीं हो सकता।'' राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है कि मनुष्य  वही है, जो मनुष्य के लिये मरे।'' दुखी-कष्ट पीड़ित प्राणी-मात्र की सेवा करना और सुख पहुंचाना, ये परोपकार के लक्षण है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि हे अर्जुन, जैसे  सूखे प्रदेश में वर्षा तथा भूखे को भोजन कराना सार्थक होता है, वैसे ही निर्धन असहाय को दिया गया दान सफल होता है।परोपकार की महिमा के लिए कवि ने कहा है ''औरों के लिए जो जीता है, औरों के लिए जो मरता है। उसका हर आंसू रामायण, उसका हर  कर्म गीता है।'' संसार में उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक है, जिसने अपने जीवन में सदैव दीन, दुखी, पीड़ित, बीमार, लाचार, विकलांग व जरूरतमंद की तन-मन-धन से सामर्थ्य के अनुसार सेवा की है।

''परहित बस जिन्ह के मन माहीं, तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नां ही।''
शास्त्रों में कहा गया है
विद्या मित्रं प्रवासेषु , भार्या मित्र गृहेषु च, व्याधिनस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च।

      विदेश में विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी। रोगी की मित्र दवाई और मरने वाले का मित्र उसका धर्म अर्थात् जीवन में किए गए शुभ कार्य (उपकार) होते हैं।
      एक कवि ने ईश्वर को इंगित करते हुए कहा - ''भगवान, मैं तुझे मंदिरों, मस्जिदो और गिरजाघरों में ढूंढता फिरता था। लेकिन तू तो गरीब के झोंपड़े और किसान के खेत में बैठा था। वास्तव में गरीब, दुखी व जरूरतमन्द लोगों की सेवा करने से हम पर ईश्वरीय कृपा होती है। इस सम्बन्ध में स्वामी रामतीर्थ का उदाहरण प्रस्तुत है। जब वे लाहौर के कॉलेज में गणित के प्रोफेसर थे। उस समय जब उनको अपने पूरे महीने की तनखा मिली तो उन्होंने सारा पैसा कॉलेज के गरीब बच्चों के खान-पान, उनकी फीस पर खर्च कर दिया। ईश्वर की ऐसी कृपा हुई कि वे तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ बन गये और विदेशों में उन्होंने भारतीय संस्कृति के प्रवचन करके भारत का नाम रोशन किया।

जीवनं  स्वयं  प्रदायोपकारणेयो, जीव यत्याशु  चान्यानालं भूतले।
नैव मृत्यु भर्वेतस्य मान्यो बुद्येः,देह मृत्युं न मृत्युं वदनत्यागमाः।।

      पृथ्वी पर जो अपना जीवन देकर उपकार से दूसरों को जीवित रखता / रखती है, उसकी मृत्यु कभी नहीं होती। बुद्धिमानों में वह सम्मानित होता है। क्योंकि शास्त्रों में तो देह की मृत्यु को मृत्यु नहीं कहा है। श्रेष्ठ है, जिससे परोपकार हेतु बार-बार मानव जन्म मिले और यह लोक कल्याणकारी पुण्य करने का अवसर मिले।
             देहदान इस नश्वर शरीर का पवित्र एवं दिव्य उद्देश्य है। इस से जीने का आनन्द एवं तृप्ति का भाव कई गुना बढ़ जाता है। अतः निर्विवाद रूप से देने का भाव, देना और दान सतभाव व सत्कर्म है। नेत्रदान, रक्तदान, अंगदान एवं देहदान दिव्य एवं दैवीय कर्म है। महर्षि दधीचि जैसे लोकहितार्थ त्याग का हमें अनुसरण करके इस कार्य में तुरन्त जुट जाना चाहिए। परोपकार न करने वाले मनुष्य का जीवन धिक्कार है, क्योंकि उनसे तो वह चार पैर वाला पशु भी श्रेष्ठ व उपकारी है जिसका मरणोपरांत चमड़ा भी पर उपकार में प्रयुक्त होता है।
1431 चाणक्य मार्ग, सुभाष चौक, जयपु



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