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शनिवार, 10 नवंबर 2012

शक्ति स्वरूपा महालक्ष्मी

- तरुण कुमार दाधीच



         भारतीय शिल्प शास्त्रों, पौराणिक शास्त्रों व अन्य प्रतिमा विषयक ग्रंथों में देव प्रतिमाओं के विविध स्वरूपों का शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है । इसके अलावा विष्णुधर्मोत्तर पुराण’, ’अपराजितयच्छा’, ’मत्स्य  पुराण’, ’मानसार’, ’मयमत’, ’अग्नि पुराणरूप मण्डन’, ’शिल्परत्नआदि अनेक ग्रंथों में हमें लक्ष्मी के विविध स्वरूपों का उल्लेख मिलता है । लक्ष्मी के विविध रूपों में उनका शक्ति स्वरूपा महालक्ष्मी रूप भी ग्रंथों में वर्णित हुआ है । 

         पौराणिक ग्रंथों में लक्ष्मी को विष्णु की शक्ति एवं आत्मा माना गया है तथा जगत जननी  मानकर इसकी पूजा अर्चना की परम्परा भी रही है । शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि इस देवी का आश्रय लेकर ही विष्णु ने सत्वको धारण किया । सम्भवतः इसी कारण विष्णु को अर्थ व न्याय, लक्ष्मी को वाणी व नीति के रुप में भी स्वीकारा गया ।

         लक्ष्मी का मूल स्वरूप महामायाव विष्णु की भार्या का रहा है । श्रीमद्भागवत् में भी इसका उल्लेख है कि लक्ष्मी में विष्णु के सभी गुण समाहित है (विष्णु-पत्नि महामाये महापुरुष लक्षणे) । विष्णु को जगत का सृष्टि रचयिता माना गया है तो लक्ष्मी को विष्णु की सृष्टि । इसी तरह शास्त्रों में धनदात्री लक्ष्मी को शरीर-इन्द्रिय व अन्तःकरण का मिश्रित प्रतीक भी स्वीकारा गया है । विष्णु पुराण में भी लक्ष्मी व विष्णु के अन्तर्सम्बंधों को विविध संज्ञाओं से अभिव्यक्त किया गया है, कहा गया है कि लक्ष्मी, विष्णु के साथ संतोष की तुष्टि बनकर, काम रूप में इच्छा बनकर, यज्ञ के रूप में दक्षिणा बनकर, पुरोडाश के रुप में आज्याहुति घृत की आहुति बनकर, अग्नि के रूप में स्वाहा बनकर वातावरण को सुगंधित करना देवी की प्रकृति रही है ।

         वैदिक ग्रंथों में विष्णु को चन्द्रमा की संज्ञा प्रदान की गई तो इसके समानान्तर लक्ष्मी को क्रांतिस्वरूप में रचा गया है । इसी भांति गोविन्द को समुद्र व देवी लक्ष्मी को तरंग के रूप में विष्णु का आलिंगन किए अभिव्यक्त किया है । मधुसूदन इंद्र के संग, कमला शची बनकर विराजमान रहती है । विष्णु जब कुबेर स्वरुप में दर्शन देते हैं तो लक्ष्मी उनकी भार्या धूमार्णाके रुप में पूजित रही है । श्री केशव धन कुबेर होते हैं  तब धनदात्री लक्ष्मी श्रीस्वरूप के साथ-साथ ऋद्धि-सिद्धि की पूजा अर्चना की परम्परा दीपोत्सव पर देखी जा सकती है । हरि को स्वामी कार्तिकेय व महालक्ष्मी को देव सेना से भी संज्ञित किया गया है -

ज्योत्सना लक्ष्मीः प्रदीपऽसौ सर्वः सर्वेश्वरो हरिः ।
लताभूताजगन्माता श्री विष्णुर्द्रमसंज्ञितः ॥
विभावरी श्री दिवसो देवचक्रगदाधरः ।
नदस्वरुपी भगवांछीर्नदी स्वरुपस स्थिता ।
ध्वजश्च  पुण्डरीकाक्षः पताकाकमलालयाः ॥


         विष्णु पुराण के  प्रथम अध्याय, आठवें सर्ग व 30 से 32 वे श्लोक से उद्धृत इन पक्तियों में भी लक्ष्मी को विष्णु का सर्जक व सहयोगी रूप में विश्लेषित किया है । इन पंक्तियों में सर्वेश्वर हरि  को दीपक व देवी लक्ष्मी को ज्योति बताया गया है, जो उन्हें प्रकाशित कर तिमिर को प्रकाशमय करती है । इसी भांति वृक्ष स्वरूप विष्णु के लिए लक्ष्मी लता रुप में होती है तथा चक्रधारी विष्णु दिन है तो रात्रि का प्रतीक लक्ष्मी को उल्लिखित किया गया है। प्रभु को नंद तथा देवी को नदी स्वरूप में व्याख्यायित किया गया है, जो पूरक प्रतीक व आंतरिक सम्बन्धों की परिधि का आध्यात्मिक पक्ष है । 


         विष्णु की शक्ति सिद्ध होने से ही लक्ष्मी को पुराणों में शक्ति स्वरूपादेवी के रूप में पूजने का उल्लेख है । भगवान विष्णुके क्रिया कलापों का पर्याय बनी लक्ष्मी उनके हर अवतार में सहयोगी बनी है तथा यह भी माना जाता है कि लक्ष्मी की शक्ति के बिना विष्णु शिथिल व प्रभावहीन रहते है । यही कारण है कि विष्णु के प्रत्येक शुभ कार्य में लक्ष्मी उनकी सहयोगी रहती है । इसी शृंखला में कहा जा सकता है कि विष्णु तब आदित्य रूप में प्रकट हुए तो लक्ष्मी ने पद्म (कमल) से जन्म लेकर पद्मनाभा का रूप धारण किया तब लक्ष्मी ने साक्षात् पृथ्वी के रूप में दर्शन दिए । अर्थात् लक्ष्मी विष्णु के दैवी शरीर के साथ दैवी बनकर एवं मानसी शरीर के समय मानवी रूप में विष्णु की शक्ति व उत्प्रेरणा बनी रही ।

         विष्णु व लक्ष्मी का संयुक्त स्वरूप लक्ष्मी-नारायणकहलाता है जो जगत के माता-पिता के रुप में पूजित है । इस तथ्य के लिए अग्नि पुराणके इस श्लोक का उल्लेख विषयगत एवं समीचीन प्रतीत होता है -

’’त्वाम्बा सर्वभूतानां देव देवो हरिः पिता ।
त्वयैतद् विष्णुना चाम्ब । जगत त्याप्तं चराचरम् ॥’’

         विष्णु का वक्षस्थल देवी लक्ष्मी का निवास स्थान माना गया है । चंचला लक्ष्मी का यही स्थान प्रेरणा व शक्तिदायक भी है । इस प्रकार शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी का यह पूजनीय स्वरूप है ।




उदयपुर (राज.)फोन : 0294-2482020    मो. 94141 77572


शक्ति की अनन्त स्त्रोतस्विनी-गीता

- सीताराम दाधीच


लेखक सुजानगढ़ के मूल निवासी हैं। आप हमारे लेखक परिवार के अग्रणी, आदरणीय सदस्य व विद्वान विचारक हैं।  आप शिक्षा विभाग राजस्थान को बतौर उपनिदेशक व ब्राह्मी विद्या पीठ लाडनूं को बतौर प्राचार्य अपनी सेवाएं दे चुके हैं )



    श्रीमद्भागवद्गीता सर्वकालीनसार्वजनिक एवं सार्वभौम ग्रंथ है। उसे मानव-निर्माण का विश्व-कोष कहा गया है । इसे श्रुतियों की रानी तथा समस्त शास्त्रों की स्वामिनी माना जाता है। पद्मपुराण में इसे 'एवमष्टाध्यायी वाड़्मयी मूर्तिरेश्वरीशब्दों द्वारा अठारह अध्यायों की वाणीयुक्त ईश्वरीय मूर्ति बताया गया है। स्वयं भगवान् शिवपार्वती से कहते हैंगीता के प्रथम पाँच अध्याय मेरे मुख हैंफिर दस अध्याय मेरी भुजाएँफिर एक उदर तथा शेष दो मेरे चरण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भी 18 वें अध्याय के चार श्लोकों में (68 से71 तकग्रन्थ की महत्ता का उल्लेख किया है।
       विश्व के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में यह एकमात्र ग्रंथ हैजिसका अनुवाद व भाष्य संसार की प्रत्येक प्रमुख भाषा में उपलब्ध है। स्वामी श्री रामसुखदासजी की साधक संजीवनी तो समग्र देश में जन-प्रिय है हीश्री जयदयाल गोयंदका की तत्व-विवेचनीशंकर भाष्यरामानुज भाष्यज्ञानेश्वरी-गीता आदि विविध टीकाएँ सम्पूर्ण देश में समाहित है। ISCON  संस्थापक कृष्णभक्त स्वामी श्री प्रभुपादजी द्वारा प्रस्तुत टीका- BHAGWAT GITA- AS IT IS का तो इतना व्यापक प्रसार हुआ है कि इसका अनुवाद विश्व की 80 भाषाओं से भी अधिक में हो चुका है और इसकी करोड़ों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। केलिफोर्निया के प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री geddes mac.gregor के शब्दों में – “ none is better loved in west than bhagavat gita”  ''पाश्चात्य देशों में गीता के समकक्ष जनप्रियता किसी ग्रन्थ को उपलब्ध नहीं है।'' गीता-प्रसार में गीताप्रेसगोरखपुर की भूमिका तो विशेष अभिनन्दनीय है ही। वर्तमान युग में लोगों की उत्सुकता है कि एक ही शास्त्र होएक ही ईश्वर होएक ही धर्म हो तथा एक ही कर्म हो। गीतामहात्म्य  का निम्नांकित श्लोक इस जन-आकांक्षा का उपयुक्त समाधान है।

''एकं शास्त्रं देवकीपुत्र-गीतम् एको देवो देवकी पुत्र एव ।
एको मंत्रः तस्य नामानि यानिकर्मच्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।''

       यूनान के विद्वान अरस्तू ने अपने शिष्य सिकन्दर को भारत से गीता लाने का विशेष आग्रह किया था। एक अंग्रेज पादरी द्वारा गीता को सब धर्म-ग्रन्थों के नीचे रखकर स्वामी विवेकानन्द को प्रदर्शित किया गयास्वामीजी तत्काल बोलेगीता ही आधार भूमि हैअतः सभी ग्रन्थ इस पर टिके है। प्रसिद्ध दर्शनिक थोरो एक बार निर्जन वन में खाट पर सोये हुए थे तो किसी ने पूछा –“ रात्रि के इस घोर अंधकार मेंइस बीहड़ बन में आपको शेर-चीते आदि हिंसक पशुओं का भय नहीं लगता “ ? उन्होंने तत्काल अपने सिरहाने से गीता निकालकर दिखाई और कहा-जिसके पास ऐसे ग्रन्थ की शक्ति होउसे भय किस बात का?
       लम्बे समय से ही सभी महापुरूषों ने गीता से ही प्रेरणा ग्रहण की है। चाहे वे किसी धर्म केकिसी जाति केकिसी भी भाषा के तथा किसी भी प्रदेश के क्यों न हो। जैसे दियासलाई की एक डिबिया में अनेक तीलियाँ होती हैतथा प्रत्येक में ही प्रज्वलन-शक्ति हैंपर प्रत्येक वैसे  ही गीता में सात सौ श्लोक हैंपर प्रत्येक श्लोक में प्रेरणा की अग्नि छिपी है।
       पलायन से जागने का नाम गीता है। विषाद को प्रसाद में बदलना ही इसका मुख्य संदेश है। प्रथम अध्याय का नाम ही विषाद-योग है। अध्याय-समापन पर ''विसृज्य सशरं चापंशोक-संविग्न मानसः शब्दों में अर्जुन के विषाद की रेखाएँ गहरी अंकित हो जाती हैं जो उसे धनुष-बाण छोड़ देने को विवश करती है।
       दूसरे अध्याय के आरंभ में ही हमें शक्ति की अनन्त स्त्रोतस्विनी के दर्शन होते हैजहाँ निम्नस्थ श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण के हृदय में एक नवीन स्पन्दन और ऊर्जा का संचार करते हैं। -

 क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थनैतत्वय्युपद्यते ।
 क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यंत्यत्तवोतिष्ठ परंतप ।।

''हे अर्जुननपुंसकता मत धारण करो। तुममें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतपहृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।'' इन प्रेरक शब्दों के बाद ही धीरे-धीरे अर्जुन का विषाद प्रसाद में बदलता है तथा अठारहवें अध्याय के अन्त में वह स्वीकारता है- ''नष्टो मोहःस्मृतिर्लब्धात्वत्प्रसादात  मयाऽच्युत''। अर्जुन का अंधकार हटता है। ''मैं कौन हूँ'' ?, मैं क्या हूँ,? का बोध होता है।



स्वामी विवेकानंद ने कहायदि गीता के इस एक श्लोक का ही पाठ प्रतिदिन किया जाता है तो संपूर्ण गीता के पाठ का लाभ प्राप्त होता हैक्योंकि गीता का संपूर्ण संदेश है-दुर्बलता का उपचार एवं समाधान, उसीको सोचते रहना नहींअपनी शक्ति और पौरूष को सोचना है, जो पहले से ही व्यक्तिमें विद्यमान है। स्वामी विवेकानन्दरवीन्द्रनाथ टैगोरलोकमान्य तिलकसुभाषचन्द्र बोसयोगीराज अरविंदमहात्मा गांधी आदि सभी गीता के इसी इंजक्शन से देश-स्वतंत्रता के लिए लड़े थे।
       निस्सन्देह आत्म-तत्व की महत्ता को उजागर करने वाला यह ग्रन्थ आत्म-स्वरूप को पहचानने की विशेष प्रेरणा देता है। तेहरहवें अध्याय की प्रथम पंक्ति के ''इदं शरीरं कौन्तेय'' शब्दों में मानो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझाने का संकेत किया है। अंगुली से 'इदंकहकर इशारा करते हुए बताया है कि यह शरीर अलग है, और तुम शरीरी-आत्मा से अलग हो। प्रमुख तत्व आत्मा हैजिसका शरीर आधार-पात्र है। जैसेमूल्यवान हीरा किसी डिबिया में रखा जाय तो महत्वपूर्ण हीरा ही हैडिबिया नहीं।
       हम सब जानते हैं, शरीर से आत्मा निकलते ही शव को अपने घर कोई कुछ समय भी रखना नहीं चाहता। अर्थी ले जाते समय वर्षा से बचने के लिए कोई भी मार्ग में दुकान या मकान पर चंद मिनट के लिए भी उसे रखने की अनुमति नहीं देता, क्योंकि शव में मुख्य तत्व, आत्मा विद्यमान नहीं है। गीता के दूसरे अध्याय में 'देही नित्यमबष्योऽहंदेहे सर्वस्य भारत''
       ''नित्यः सर्वगतः स्दाणुरचलोऽयं सवातनःआदि अनेक श्लोकों में आत्मा के स्वरूप की व्याख्या की गयी है। मृत्यु से भयभीत न होने के संदेश में निम्नांकित श्लोक विशेष सारगर्भित हैः-

अव्यक्तादीनि भूतानिव्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्त निधनान्येवतत्र का परिदेवना  ।। (2-20)

हे अर्जुनसमस्त प्राणी जन्म से पूर्व थे अवश्य, पर किस रूप मेंकहां थे ? वे अप्रकट थे। मरने के बाद भी वे उसी प्रकार अप्रकट हो जाने वाले हैं। वर्तमान जीवन केवल बीच का है,जो प्रकट दिखाई देता है, ऐसी स्थिति में जीवन के सम्बन्ध में चिंता क्यों की जाए ?
       गीता के अध्ययन के पश्चात् ही स्वामी विवेकानन्द ने सिंहनाद किया – “proclaim to the whole world with trumpet voice thou art of reservoir of omnipotent power. Arise,awake and manifest the within."   अर्थात्समग्र संसार में शंखघोष से घोषणा कर दो कि सर्वशक्ति के अनन्त स्त्रोत आप स्वयं हैं। उठेंजागें और अन्दर विद्यमान अपनी अनन्त शक्ति को मुखरित करें।

सोमवार, 5 नवंबर 2012

कराग्रे वसति लक्ष्मी

-देवदत्त शर्मा.अजमेर



        विष्णु पुरूषार्थ के प्रतीक हैं तथा हमारे हाथ पुरूषार्थ के माध्यम। इसीलिए वेदों में यह उक्ति है - ‘कराग्रे वसति लक्ष्मी
धनअर्थात् लक्ष्मी की आकांक्षा प्रत्येक प्राणी को होना स्वाभाविक हैक्योंकि यही जीवन का आधार है। यही विकास की रीढ़ है। अतः हर इंसानचाहे वह किसी भी देश में होअधिकाधिक धन अर्जित करने की दौड़ में रहता है। ईमानदारी सेबेईमानी सेभ्रष्टाचार सेयेन-केन-प्रकारेण धन प्राप्त करने की लालसा ने मनुष्यता खो दी है। इंसान स्वार्थी एवं हिंसक होता जा रहा है। मानव मूल्य विलुप्त हो रहे हैं। भारत आध्यात्मिक देश है। हमारी संस्कृति में मानव मूल्यों को महत्व देते हुए जीवन के आधार स्तम्भ धन की प्राप्ति हेतु एकमात्र पुरूषार्थ पर जोर दिया गया है। पुरूषार्थ से अर्जित धन ही फलदायी माना गया है। ऐसे धन को ही ‘‘लक्ष्मी’’ की संज्ञा दी गई है। एतदर्थ भारतीय समाज में लक्ष्मी पूजन की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या की काल रात्रि में दीपावली के दीयों की जगमगाहट भरे उल्लसित वातावरण में लोग लक्ष्मी का पूजन करके यह प्रार्थना करते हैं कि उनके घर में लक्ष्मी विराजमान हो, ताकि जीवन निर्विघ्न चलता रहे। लेकिन एक कटु सत्य यह है कि पूजा करने मात्र से लक्ष्मी मेहरबान नहीं हो सकती है। लक्ष्मी तो पुरूषार्थ की दासी है। जो अधिक पुरूषार्थ करेगा उस पर लक्ष्मी उतनी ही अधिक मेहरबान होगी। पुराणों में इसका ठोस सबूत विद्यमान है। समुद्र मंथन के समय जब मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को ‘‘मथानी’’ बनाया गया तो उसे टिकाने के लिए आधार स्वरूप स्वयं विष्णु को कच्छप (कूर्मबनकर समुद्र में मंदराचल को धारण करना पड़ा था। उसी आधार पर समुद्र मंथन हुआ। मंदराचल की घूर्षण (रगड़से विष्णु की पीठ का जो हाल हुआउसका वर्णन कूर्मपुराणब्रह्मपुराण एवं विष्णु पुराण में उल्लेखित है -

‘‘परिभ्रमंत गरिमंग पृषुतः विभ्रत तदावर्तनमादि कच्छपो मेनेडकण्डूयनम प्रमेयः’’

अर्थात् - अनंत शक्तिशाली आदि कच्छप भगवान को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता थामानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो।
विष्णु की पीठ छिल गई। अपने दूसरे स्वरूपों से असुरों एवं देवताओंदोनों में विष्णु ने शक्ति स्वरूप प्रवेश करके समुद्र मंथन किया। यद्यपि देवताओं एवं असुरों ने मिलकर मंथन किया थापरन्तु सर्वाधिक पुरूषार्थ तो विष्णु को ही करना पड़ा था और समुद्र से उत्पन्न चौदह रत्नों में से एक रत्न ‘‘लक्ष्मी’’ ने विष्णु का ही वरण किया। यानि सर्वाधिक पुरूषार्थ के कारण लक्ष्मी विष्णु की दासी बन गई। संसार के पालनहार को लक्ष्मी रूपी धन प्राप्त हुआ।
हमारी पौराणिक संस्कृति हमें स्पष्ट बता रही है कि ईमानदारी पूर्वक पुरूषार्थ करेंगे तभी हमें धन की प्राप्ति होगी अन्यथा नहीं। कहा भी है -  

1.कर्म प्रधान विश्व करि राखा। 2.    सकल पदारथ है जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।।  3.उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न च मनोरथे।।

हम जिन पदार्थों की मांग करना चाहते हैंउन्हें प्राप्त करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। धन कर्म करने से प्राप्त होता है। कर्म अर्थात् पुरूषार्थ। पुरूषार्थ का आधार हमारे हाथ हैं। जिनसे हम परिश्रम करते हैंअपने दो हाथों के सुरक्षित रहते ही कर्म करना संभव है। अतः भारतीय संस्कृति में हर इंसान प्रातः उठकर परमात्मा से यह प्रार्थना करता है कि हे प्रभुहमारे ये दो हाथ सलामत रहें, ताकि हम इनसे कर्म करके धन उपार्जन कर सकें तथा हमारी जीविका चला सकें। कर्म करने में इन हाथों के अग्रभाग अर्थात् हथेलियांअंगुलियांअंगूठे प्रमुख है। इन्हीं की मदद से सुविधानुसार हाथों से काम किया जा सकता है। एतदर्थ शरीर के ये अंग धन (लक्ष्मीप्राप्ति का मुख्य आधार है। इसीलिए हमारे पुराणों में दैनिक जीवन में महत्व देते हुए कहा है -
‘‘कराग्रे वसति लक्ष्मी’’
यही कारण है कि प्रतिदिन उठते ही हम हाथ के इस अग्रभाग के दर्शन करके परमात्मा से अनुग्रहित होते हैं। हमारे हाथ के मूल में ब्रह्मा अर्थात् भाग्य को माना गया है। यहां पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि हाथ की रेखाओं का भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये रेखायें तो वास्तव में हथेली को आकार देने वाली कुंजियां है। भाग्य तो हाथ के इस अग्रभाग के सही सलामत रहने एवं पुरूषार्थ करने से बनता है। अतः ये हाथ ब्रह्मा का निवास माना जाता है। जहां ब्रह्मा है वहां सरस्वती दौड़ी आती है। इसीलिए हाथ के अग्रभाग का सम्मान इस प्रकार माना गया है -

कराग्रे वसति लक्ष्मीकर मध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्माप्रभाते कर दर्शनम्।।

तात्पर्य यह है कि दीपावली के पावन पर्व पर लक्ष्मी पूजन के समय हम इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि जीवन में पुरुषार्थ ही धन का स्रोत होता है। पुरूषार्थ के लिए कर्म की आवश्यकता होती है। अतः हम कर्म करें। भाग्य के भरोसे न रहें। हमारे दोनों हाथ कर्म करने के माध्यम हैं। अतः येन-केन-प्रकारेणअन्यायबेईमानीभ्रष्टाचार के माध्यम से प्राप्त धन फलित नहीं होता हैअतः पुरूषार्थ को महत्व दें। ईश्वर आपके साथ है। पुरूषार्थी को फल अवश्य मिलता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्म को महत्व दिया है -
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’’
यही है वास्तविक लक्ष्मी पूजा।
संदर्भ -: श्रीमद्भागवत स्कंध 8, अध्याय 7एवं रामचरित मानस

स्वर्ण प्रकाश को तलाशता हमारा दीपोत्सव

- शास्त्री कोसलेन्द्रदास

( दधिमती लेखक परिवार की निष्ठावान एवं समर्पित विद्वत्मन्डली के उज्ज्वल एवं प्रखर नक्षत्र, रामानंद विश्व विद्यालय में दर्शन साहित्य के आचार्य, शास्त्री कोसलेंद्रदास ने दीपावली के विभिन्न अर्थ एक दार्शनिक अंदाज में किये हैं। तम के विरुद्ध युद्ध के लिए सन्नद्ध अनुशासित सैनिक की भांति अवली अर्थात पंक्ति बद्ध दीपों के त्यौहार दीपावली के अबूझे,अछूते अर्थ एवं व्याख्या से रू-ब-रू हों,विद्वान लेखक के गुदगुदाने वाले लेख के जरिये-संपादक )    




    ·                    दीपावली आ गयी है। धन व ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी के आगमन की सूचना देती है यह तिथि। कहते हैंदीवाली इतिहास में कई सदियों से रंगरेलियां करती आ रही है। यही दीवाली अयोध्या में पादुका-प्रशासन से मुक्ति का उत्सव है। जनता उत्साहित और उल्लसित थी कि अब पादुका-पूजन के दिन लद गए। असली राजा राम और रानी सीता अयोध्या में पधार चुके हैं। अतः अब चौदह साल के अंधेरे को हटाकर अमावस्या की रात को दीप जलाकर पूर्णिमा में बदलना है। दीवाली पादुका-प्रशासन की समाप्ति का पर्व है। लोक जीवन में दीवाली रामराज्य की विजय का त्यौहार है। पता नहींकिसने इसका नाम 'दीपोत्सवरख दियानाम निश्चय ही पुराना हैकालिदास-भवभूति से पुरानारामायण-महाभारत से भी पुराना। संस्कृत में 'दीपोत्सव', हिन्दी में 'दीपावलीऔर 'दीवाली'
·                    हमारी संस्कृति में बारह महीनों की व उनमें आने वाले सारे त्योहारों की महिमा अपरंपार है। एक शृंखला जैसे सारे त्योहार एक-दूसरे से जुड़े हुए है। कोई त्योहार उत्सव के रूप में मनाया जाता है तो कोई उपासना के रूप में। संस्कृति के आराध्य राम और कृष्ण के जन्म भी उत्सव ही तो है। नवरात्रों का चक्र जब आता है तो उपासना प्रारम्भ हो जाती है। आश्विन के नवरात्र में शक्ति अर्जितकर मानव अभिमान व अज्ञान के प्रतीक रावण को विजयादशमी के दिन जला चुका है। शक्ति से युक्त हो वह सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए तत्पर है। वह अपनी संस्कृतियुक्त समृद्धि के सामर्थ्य को बढ़ाना चाहता है। आश्विन के कृष्ण पक्ष में पितरों की और शुक्लपक्ष में देवताओं की श्रद्धा-वन्दना अब संपन्न हो चुकी है। भारतीय महीनों में पवित्र कार्तिक आ चुका है। ऐसे में नववधू के गृह-प्रवेश की भांति शोभागरिमापवित्रता व सुकुमारता के साथ त्योहारों की महारानी दीपावली आ गयी है। भारत के सामाजिक व धार्मिक जगत में दीपावली सभी प्रकार के अत्यंत महत्वपूर्ण है।
·                    पांच दिनों तक अनवरत चलने वाले इस त्योहार में मुख्यतः धन सम्पति की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की पूजा करने का विधान है। लक्ष्मी वह जो अमृत-सहोदरा है। वह चंद्र सहोदरा है। वह समुद्र से पैदा होती है। श्रीसुखशोभासौभाग्यशांतिपवित्रता व हमारे लोकजीवन से जुड़ी वह लक्ष्मी विष्णुपत्नी है। तभी तोघनघोर काली रात में प्रकट होकर वह स्वर्ण वर्षा कर रही है। वैदिक ऋषि ने उस लक्ष्मी को सुखसौभाग्य की प्रदात्री धरती माता के रूप में देखा था। पर हमें यह मानकर लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए कि यह लक्ष्मी विश्वमंगल विधायिनी शाश्वत शक्ति है। अतः अमावस्या के हृदय में बैठी लक्ष्मी की प्राप्ति चरित्र व समर्पण से करनी है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था से रक्षाबन्धन ब्राह्मणों काविजयादशमी क्षत्रियों कादीपावली वैश्यों का तथा होली अंत्यजों का त्योहार माना जाता है। पर आज ये चारों त्योहार मानव मात्र के पर्व व त्योहार है।
·                    ऋग्वेद में सरस्वती को वाक्-शक्ति एवं लक्ष्मी को सौभाग्य व समृद्धि की देवी माना गया है। यजुर्वेद में भगवान विष्णु की दो पत्नियों के नाम श्री और लक्ष्मी है। तत्व दृष्टि से एक होने पर भी ये दोनों अलग-अलग है। इन पांच दिनों में महालक्ष्मी की उपासना एकदम शास्त्रसम्मत है। पूरे कार्तिकमास में दीपक जलाकर देवताओं को अर्पित करने चाहिए। श्रीविष्णुधर्मोत्तरपुराण में कार्तिक में दीपदान का जोरदार महत्त्व वर्णित है। तभी तोधन त्रयोदशी से भैयादूज तक हर घर में दीपदान पूरे उत्साह व श्रद्धा के साथ किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति पूरे कार्तिक मास में दीपदान न कर सके तो भी इन पाँच दिनों में अनिवार्य रूप से महालक्ष्मी के पधारने के सम्मान में दीप जलाने ही चाहिए। व्यापारियों का वाणिज्य संवत् दीपावली से ही प्रारम्भ होता है। अतः व्यापारी वर्ग दीपावली को लक्ष्मी पूजा सदियों से करते आ रहे हैं। कलमस्याही व बही के रूप में विद्या की देवी सरस्वती का पूजन भी इस दिन होता है। आदिपूज्य होने के कारण ऋद्धि-सिद्धि व शुभ-लाभ के साथ गणपति की पूजा तो अनिवार्य ही है। अतः इसी दिन गणपति-लक्ष्मी-सरस्वती इन तीनों की पूजा एक साथ होती हैयह तथ्य बड़ा पुराना है। एक अन्य प्रामाणिक कथा जो सनत्कुमारसंहिता में भी पाई जाती है और वामनपुराण में भी। इस कथा के अनुसार भगवान् वामन ने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों में दैत्यराज बलि से सम्पूर्ण लोक छीनकर उसे पाताल में भेज दिया था। तब बलि ने भगवान् विष्णु से यह याचना की थी, 'हे प्रभोजो प्राणी इन तीन दिनों में मृत्यु के देवता यमराज के लिए दीपदान करेउसे यम की यातना न भोगनी पड़े और उसके घर को लक्ष्मी कभी छोड़कर न जाए। बसतभी से दीपोत्सव मनाने और यमराज के निमित्त दीपदान करने की परंपरा का प्रारंभ हुआ। कहते हैंइसी दिन विक्रम संवत् के प्रवर्तक महाराज विक्रमादित्य दिग्विजय कर अपने राज्य उज्जैन को लौटे थे। उनके स्वागत में प्रजा ने अमावस्या को दीप जलाकर उसे प्रकाश पर्व में परिणत कर दिया था। तंत्रदर्शन में दीपावली की रात्रि मोहरात्रि के रूप में साधन-सिद्धि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व महिमामयी मानी गयी है।
·                    किसी दिन एक शुभ मुहूर्त में दियेतैल व रूई की बत्ती का अग्नि से संयोग आदिमानव ने पहले-पहल किया होगा। वैसे हीदिया जलाया जा सकता है। अंधकार भले ही समाप्त न हो पर उससे जूझा तो जा ही सकता है। दीपावली याद दिलाती है, उस ज्ञान के छोटे से जलते दीपक की जो अंधकार से जूझता हैविघ्न-बाधाओं से लड़ता हुआसंकटों का सामना करते हुए। अपने प्राणों का बलिदान कर प्रकाश को स्थापित करने वाले ये दीपक धन्य है। दीपावली की रात मनुष्य के हाथ अंधकार से लड़ रहे हैं। मानव द्वारा रचे गए दीपक ही इसकी लड़ाई के मुख्य अस्त्र-शस्त्र है। पर वास्तव मेंवे लोग कितने कायर है जो अंधकार को महाबलवान् कहते हैं। हर वर्ष दीपावली आकर उन लोगों को कहती है, 'उठोडरो मतअंधकार से लड़ो।पर अनादिकाल से अज्ञानरूपी अंधकार से घिरे हम ज्ञानरूपी प्रकाश को देख नहीं पाते। प्रकाश को प्राप्त करने की हमारी यात्रा सदियों से अभी तक चल ही रही है। आओअज्ञान के अंधकार को हटाकर ज्योतिस्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्न करें। प्रयत्न की इस प्रक्रिया को ही भारतीय दर्शन में 'लक्ष्मीपूजाकहते हैं... तमसो मा ज्योतिर्गमय।

36 बी, सरस्वती नगर, सुशीलपुरा,सोडाला, जयपुर



रविवार, 21 अक्तूबर 2012

राक्षस जाति एवं रावण - एक परिचय

-देवदत्त शर्मा

  
(कई बार जो सत्य हम जानते हैं उसे ही अंतिम एवं निरपेक्ष सत्य मान बैठते हैपर ऐसा नहीं होता |. ज्यों ही हमारी जानकारी के परे कोई नयी बात हमारे समक्ष उद्घाटित होती हैवह हमें पहले स्तंभित करती हैफिर चकित एवं विस्मित करती है एवं अंत में हमें मुदित करती हैप्रस्तुत खोज परक लेख में राक्षस राज रावण से सम्बंधित कुछ नवीन जानकारियों से हमें रू--  रू कर रहे हैं। देवदत्त शर्मा  बाल की खाल निकालने वाले अर्थात वकील हैं (रेवेन्यु बोर्ड अजमेर में), उस पर प्रखर विद्वान् अर्थात करेला और नीम चढ़ा  तो आनंद लीजीये इस अभिनव रचना का-सम्पादक)



        उपनिषद्वेदपुराणधर्मशास्त्रइतिहास आदि ग्रन्थों में कई मानव जातियों का उल्लेख है। यथा - देवतादैत्यराक्षसकिन्नरयक्षनाग आदि । साधारणतः दैत्योंराक्षसों तथा दानवों को एक ही कोटि में मान लिया जाता था। परन्तु ये सभी पृथक-पृथक जातियां है। देवता और दैत्य तो रक्त संबंधी थे।
राक्षस जाति का जहां तक प्रश्न हैयह शब्द जातिगत न होकर कर्म के आधार पर है। राक्षस जाति प्रारम्भिक दृष्टि से श्रेष्ठ जाति थीपरन्तु शनैः-शनैः अत्याचारियों की प्रवृत्ति आ जाने के कारण बदनाम हो गई।  धर्मशास्त्रों एवं पुराणों में लंकेश रावण को  राक्षसराज कहा गया है। इस जाति में उसे सर्वाधिक सम्मानित माना गया। परन्तु सत्य यह है कि रावण राक्षस वंश का नहीं था। राक्षसों की उत्पत्ति एवं उनके अस्तित्व की कहानी ही अलग है।
सृष्टि के नियंता ब्रह्मा ने समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्राणियों को उत्पन्न किया। इन प्राणियों में से कुछ ने जल की रक्षा की जिम्मेदारी ली तोकुछ ने जल के यक्षण (पूजाकरना स्वीकार किया। जिन प्राणियों ने रक्षा का भार लिया वे राक्षस कहलाये तथा जिन्होंने यक्षण (पूजनस्वीकार कियावे यक्ष कहलाये। इस प्रकार राक्षस और यक्ष दो वर्ग हो गए। सृष्टि के हिसाब से देखा जाय तो राक्षसों ने पवित्र कार्य की जिम्मेदारी ली थी। जल की रक्षा सारे विश्व के लिए हितकर थी। इस परिप्रेक्ष्य में राक्षस जाति पवित्र जाति थी।
राक्षसों का प्रतिनिधित्व ‘हेति’ एवं ‘प्रहेति’ नामक दो भाईयों ने किया। ये दोनों दैत्यों के अधिपति ‘मधु-कैटभ’ के ही समान शक्तिशाली सिद्ध हुए। ‘प्रहेति’ धर्मात्मा थापरन्तु ‘हेति’ ने राजनीति को स्वीकार किया ‘हेति’ ने अपने राजनैतिक संबंध बढ़ाने हेतु ‘काल’ की पुत्री ‘भया’ से विवाह किया। उसके ‘विद्युत्केश’ नाम का पुत्र हुआ। उसका विवाह सन्ध्या की पुत्री ‘सालकटंकटा’ से हुआ। परन्तु सालकटंकटा ऐयाश औरत थी। जब उसके पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसने लावारिस छोड़ दिया। विद्युत्केश ने भी उस पुत्र की परवाह नहीं की। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान शिव एवं मां पार्वती की नजर उस नवजात पर पड़ी। उन्होंने उसे सुरक्षा प्रदान की। नवजात शिशु को त्याग देने के कारण मां पार्वती ने शाप दिया कि अब से राक्षस जातियाँ जल्दी गर्भ धारण करेंगी और उत्पन्न बालक तत्काल बढ़कर माता के ही समान अवस्था को प्राप्त होगा। संभवतः इसी कारण राक्षस जाति का विकराल रूप संसार में आया। इसके पूर्व इस जाति में शारीरिक आकर्षण एवं कांति विद्यमान हुआ करती थी।
विद्युत्केश एवं सालकटंकटा का परित्यक्त पुत्र ‘सुकेश’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिव के वरदान के कारण उसे अभय था तथा शिव ने उसे एक दिव्य आकाशचारी विमान भी दिया। अतः वह निर्भीक  होकर सर्वत्र विचरण करने लगा। सुकेश ने गंधर्व कन्या देववती से विवाह किया। देववती से सुकेश के तीन पुत्र हुए जिन्होंने राक्षस जाति में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। ये थे :
1. माल्यवान
2. सुमाली
3. माली
इन्हीं में से ‘सुमाली’ लंकाधिपति रावण के नाना थे। इन तीनों भाईयों ने वरदान और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की तथा ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। इन्होंने ब्रह्माजी से भाईयो का परस्पर स्नेह बना रहने तथा शत्रुओं पर सदा विजयी रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। यही कारण था कि इन तीनों भाईयों में कभी फूट पैदा नहीं हुई। आपस में इन्होंने कभी लड़ाई नहीं की। अपितुवरदान के प्रभाव से अंहकारी हो गये और देवताओं तथा असुरों को कष्ट देने लगे।
इन्होंने विश्वकर्मा से त्रिकूट पर्वत के निकट समुद्र के किनारे लंका का आवास प्राप्त किया। इस प्रकार लंका पर सर्वप्रथम ‘राक्षसो’ का आधिपत्य स्थापित हुआ। यह लंका सजलासुफला धरित्री थी। धन-वैभव की कोई कमी नहीं थी। यहां पर रहते हुए इन तीनों राक्षसों ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना आतंक फैला दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने विश्व विजय की कामना कर ली थी। इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने हेतु स्वयं ‘विष्णु’ ने इनसे युद्ध किया। एक समय तो सुमाली ने विष्णु को परेशान ही कर दियापरन्तु विष्णु ने पूर्ण शक्ति से इन राक्षसों को हराकर इन्हें लंका से खदेड़ दिया। तीनों राक्षस अपनी जाति सहित रसातल में जा बसे।
इन्हीं तीनों भाईयों के वंश से राक्षस जाति का विकास हुआ। आगे जाकर रावण के प्रबल महारथियों में इन्हीं के वंशज उसके सहायक बने। उन्हीं के बलबूते पर रावण ने विश्व विजय का अभियान प्रारम्भ किया था। इनके वंश के प्रमुख बलवानों में माल्यवान के - वज्रमुष्टिधिरूपार्श्वदुर्मुखसप्तवहनयज्ञकोपमत्तउन्मत्तनामक पुत्र तथा अनला नामक कन्या हुई। सुमाली के प्रहस्तअकम्पनविकटकालिकामुखधूम्राशदण्डसुपार्श्वसहादिप्रधसभास्कण नामक पुत्र तथा ‘रांका’, ‘पुम्डपोत्कटा’, ‘कैकसी’ एवं ‘कुभीनशी’ नामक पुत्रियां हुई। ‘कैकसी’ ही लंकेश रावण की माता थी। ‘माली’ के - अनलअनिलहर और संपात्ति नामक चार पुत्र हुए। रावणवध के पश्चात् लंकाधिपति बने विभीषण के ये ही मंत्री बने थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या रावण भी राक्षस था ? साधारणतः जो जनमानस उसे भी ‘राक्षसराज’ ही के रूप में जानते हैं। परन्तु सत्य यह है कि रावण स्वयं राक्षस जाति का नहीं था। राक्षसों का अधिपति बनने के कारण वह राक्षसराज और लंका का अधिपति बनने के कारण लंकेश कहलाया। रावण नाम भी उसका विशेषण हैन कि संज्ञा। उसका असली नाम तो दशग्रीव है। रावण नाम क्यों पड़ायह एक पृथक कहानी है।
फिररावण कौन था ? लंका का राज्य उसे कैसे मिला ? यह प्रश्न मन में जिज्ञासा पैदा करता है।
प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र ‘पुलस्त्य’ ऋषि थे। उन्हें ‘विश्रवा’ मुनि के नाम से जाना जाता है। ये ही दशग्रीव (रावणके पिता थे। इसीलिए रावण को पौलस्त्य भी कहा गया है। पुलस्त्य ऋषि बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इनके ब्राह्मण होने के कारण पितृकुल से रावण ब्राह्मण था। विश्रवा की पुत्री भरद्वाज मुनि की पुत्री थी जिससे कुबेर का जन्म हुआ। कुबेर भी बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इन्हें लोकपाल का पद मिला। इससे पहले यमइन्द्र एवं वरूण ही लोकपाल हुए थे।
जब माल्यवानसुमालीमाली आदि राक्षसों को विष्णु ने परास्त कर दिया एवं वे लंका छोड़कर रसातल में चले गएतब ब्रह्मा ने खाली हुई लंका कुबेर को सौंप दी। इस प्रकार लंका राक्षसों के हाथ से निकलकर लोकपाल के अधीन हो गई। लोकपाल कुबेर रावण का सौतेला भाई था।
राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी के विवाह का जब प्रश्न उठा तो सुमाली ने राक्षस जाति की भलाई के लिए तपस्वी विश्रवा से ही कैकसी से विवाह कराना चाहा। इसलिए किविश्रवा के वंशज थे। सुमाली को आशा थी कि इनसे वैवाहिक संबंध स्थापित करके राक्षसों का भला किया जा सकता है। सुमाली ने कैकसी के सम्मुख अपनी इच्छा व्यक्त की जिसे कैकसी ने स्वीकार कर लिया तथा सान्ध्य बेला में वह विश्रवा मुनि के पास गई। उस समय विश्रवा अग्निहोत्र कर रहे थे। यह बेला भयंकर थी। जब विश्रवा को कैकसी के मन्तव्य का पता चला तो मुनि ने कहा कि तुम्हारी इच्छा पूरी होगी परन्तु तुम कुबेला में आई हो अतः तुम्हारे पुत्र भयंकर दुराचारी एवं क्रूर स्वभाव वाले होंगे। उनका राक्षसों के साथ ही प्रेम रहेगा।
इस प्रकार कैकसी ने दुःखी मन से विश्रवा से निवेदन किया कि मुझे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए। विश्रवा ने उसकी विनम्रता से प्रसन्न होकर कहा कि उसका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्मा एवं ब्रह्मा के समान वंश वाला होगा।
कालान्तर में कैकसी ने प्रथमतः दशग्रीव (रावण), दूसरी बार कुम्भकर्णतीसरी बार शूर्पणखा (पुत्रीतथा चौथी बार विभीषण को जन्म दिया। विभीषण धर्मात्मा हुए जबकि शेष तीनों राक्षसी एवं क्रूर स्वभाव के साबित हुए।
कैकसी एवं विश्रवा का विवाह यह सिद्ध करता है कि राजनैतिक स्तर पर वैवाहिक संबंध पौराणिक परम्परा रही है।
इस प्रकार रावण पितृपक्ष से ब्रह्मा के वंश को होने के कारण ब्राह्मण था। परन्तु माता राक्षसकुल की होने के कारण एवं बाद में सुमाली द्वारा रावण को राक्षसों का अधिपति बना देने के कारण वह राक्षसों का ही हितैषी हो गया। सुमाली ने ही रावण को प्रेरित करके राक्षसों की मूल राजधानी लंका पर पुनः आधिपत्य कराया। चूंकि कुबेर लोकपाल थाअतः रावण ने उससे लंका छीन ली वरना भ्रातृप्रेम तो उसमें भी था। भाई के रूप में वह कुबेर को लंका से नहीं हटाना चाहता थापरन्तु सुमाली की जिद्द के कारण ही उसने ऐसा किया।
दशग्रीव का नाम रावण क्यों पड़ाइसके बारे में कहा जाता है कि विविध शक्तियां प्राप्त करके बलशाली होने पर रावण ने ‘कैलाश पर्वत’ को ही अपनी भुजाओं पर उठा लिया। इस पर क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने पैर के अंगूठे से ही कैलाश को दबाकर रावण की भुजाओं को पर्वत के नीचे दबा दिया व उसके अहं को तोड़ा। भुजाऐं पर्वत के नीचे दबने पर पीड़ा के कारण दशग्रीव ने जोर से रोदन (आर्तनाद) किया। तीनों लोक उसके रोदन से कांप उठे। रावण ने मन ही मन भगवान शिव की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर रावण की भुजाओं को मुक्त किया तथा चन्द्रहास दिया। उसके रोदन के कारण शिव ने दशग्रीव को ‘‘रावण’’ की संज्ञा दी। तभी से दशग्रीव का केवल ‘‘रावण’’ नाम ही प्रचलित हो गया। यही वह रावण था जिसे मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने मारकर पृथ्वी को राक्षसों के आतंक से मुक्त किया।

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राम-रावण युद्ध

- देवदत्त शर्मा 



दशग्रीव रावण ने घोर तपस्या द्वारा इच्छित वरदान प्राप्त कर विश्वविजयी अभियान चलाया था। उसने अपने अहंकार के कारण सारे विश्व को त्रस्त कर दिया था। कौशल नरेश ‘अनरण्य’ का वध करके उसने अयोध्या पर विजय प्राप्त करके समस्त देवताओं के अस्तित्व पर आघात किया था। कौशल (अयोध्याराज्य ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया था। इसी कड़ी में राम वनवास (दण्डकारण्यरावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का एक हिस्सा था। राम को रावण के घनिष्ठ मित्र बाली के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। दो महाशक्तियों के टकराव में समस्त विध्वंशक  शस्त्रादि के प्रयोग से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का ह्रास  हुआ।
वस्तुतः राम-रावण युद्ध एक महायुद्ध था। महायुद्ध तभी होते हैं, जब दो महाशक्तियों के बीच राजनैतिक विवादों को सुलझाने की सारी संभावनाऐं मिट जाती है। प्रत्येक राजनीतिज्ञ युद्ध को टालने का भरसक प्रयास करता है। क्योंकि वह युद्ध के भीषण परिणामों को जानता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है।
फिर भी समय-समय पर महायुद्ध हुए हैंतथा भविष्य में भी होने की आशंकाओं से घिरा विश्व आज भी भयभीत है। हजारों वर्षों पूर्व हुए देव-दानव युद्धराम-रावण युद्ध तथा महाभारत का युद्ध विश्वयुद्ध ही थे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए दो महायुद्धों के परिणाम तो हम अभी तक नहीं भूल पाए हैं। यही कारण है कि विश्व की बड़ी शक्तियां तृतीय महायुद्ध की भयावहता की कल्पना से कांप जाती है।
हर युग की राजनीति आगामी समय में इतिहास के रूप में जानी जाती है। अतः राम-रावण युद्ध को भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना अनुचित नहीं होगा। बिना राजनैतिक विवादों के महायुद्ध हो ही नहीं सकते और महायुद्धों के कारण यकायक पैदा नहीं होते हैं। अपितुसदियों तथा पीढ़ियों से पनपकर बड़े होते हैं। राम-रावण युद्ध के पीछे भी ऐसे ही कारण थे। अतः आवश्यक है कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम को अवतार पुरूष से परे एक शासक के रूप में देखना होगाक्योंकि वे एक देश (कौशलके राजा थे। वे तत्कालीन समय की एक महाशक्ति उत्तर कौशल राज्य (अयोध्याका प्रतिनिधित्व करते थे। भरतखण्ड के अधिकांश राज्य अयोध्या की सत्ता को स्वीकार करके उन्हें कर देते थे।
यही स्थिति लंकाधिपति रावण की थी। राक्षस जाति का वही एक शक्तिशाली प्रतिनिधि था। उत्तर कौशल के ही समान वह भी एशिया की महाशक्ति था। राम और रावण की शक्तियों को दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों के रूप में देखेंगे तो हमे उसको ऐतिहासिकता  का महत्व ज्ञात होगा। केवल धर्म और विश्वाससत्य-असत्य के विवाद में राम-रावण युद्ध की ऐतिहासिकता  की उपेक्षा करना इतिहास से दूर भागना है। मेरा आशय राम के प्रति श्रद्धालुओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं हैं। मैं तो केवल उस महायुद्ध की ऐतिहासिकता पर कुछ कहना चाहता हूं जिसे युद्ध ने समय को ऐसा मोड़ दिया कि उससे सबक मिला। सदियों तक शासकों ने उसे याद रखा तथा यथासंभव युद्धों को टाला। यही कारण था कि अगला महायुद्ध उसके पश्चात् सदियों के अन्तराल के बाद भी तब हुआजब उसका टालना अवतार पुरूष माने जाने वाले यदुवंशी श्रीकृष्ण के लिए भी संभव नहीं रह गया था।
आज की राजनीति कल का इतिहास बनती है। अतः राम-रावण युद्ध के ऐतिहासिक महत्व को जानने के लिए हमें इन दोनों महाशक्तियों की राजनैतिक परिस्थितियों को समझना होगा।
राजनीति में अपने प्रतिद्वंद्वी को जड़ से समाप्त करना कोई नई बात नहीं है। जब से सृष्टि बनीयही परिपाटी राजनीति में मिलती है।
उत्तर कौशल (अयोध्यापर इक्ष्वाकु कुल पीढ़ियों से एकछत्र राज्य करता रहा था। इस वंश में पराक्रमी राजा हुए थे। सम्पूर्ण भरतखण्ड पर उनका सदा ही प्रभाव रहा। अतः यह स्वाभाविक था कि जो भी उनके विरूद्ध सिर उठाताउसको कुचल दिया जाता। देवता तक अयोध्या नरेश की कृपा के आकांक्षी रहते थे।




परन्तु भारत के दक्षिणी छोर पर समुद्र पार लंका में राक्षस जाति का शासन था। वस्तुतः समुद्रगत जल की सुरक्षा के लिए नियुक्त रक्ष संस्कृति से व्युत्पन्न वर्ग ही राक्षस (रक्षकजाति थी। प्रजापिता ब्रह्मा ने इनकी नियुक्ति की थी। इनको आवास के लिए सजला-सुफला ‘लंका’ नामक स्थान उपलब्ध किया था। यह जाति अति शक्तिशाली एवं पराक्रमी सिद्ध हुई। इस जाति में माल्यवानसुमाली एवं माली नामक राक्षस तो इतने शक्तिशाली थे कि उनसे देवताओं को अपने अस्तित्व का ही भय हो गया था। अतः सबने संगठित होकर बड़ी कठिनाई से उन्हें लंका से भगाकर लंका पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु कालान्तर में सुमाली के दोहित्र (प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र विश्रवा का पुत्रदशग्रीव (रावणने अपने पराक्रम द्वारा देवताओं से लंका वापिस छीनकर वहां का अधिपति बन बैठा। रावण इतना पराक्रमी हुआ कि उसने विश्वविजयी बनने की कामना करके दिग्विजयी अभियान प्रारम्भ कर दिया। उसने सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया। सम्पूर्ण एशिया में रावण का डंका बजने लगा। इस अभियान में उसने उत्तर कौशल (अयोध्यापर भी आक्रमण किया तथा वहां के राजा ‘अनरण्य’ (राम के पूर्वजको मारकर विजय प्राप्त की।
उत्तर कौशल पर रावण की विजय देवताओं के अस्तित्व को चुनौती थी। यदि रावण का विनाश नहीं किया गया तोक्या होगासभी ने अयोध्या के नेतृत्व में रावण के विनाश की योजना बनाने में शीघ्रता की। अयोध्या के अधिपति ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया। परन्तु दशरथ की पीढ़ी तक भी कोई रावण को परास्त नहीं कर सका। यही कारण था कि रावण की अयोध्या से स्थाई शत्रुता हो गई। रावण भी सावधान हो गया। उसने देवताओं को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया। भरतखण्ड के नागरिकों पर उसने अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। वस्तुतः ऐसा करके वह अयोध्या को आन्तरिक मामलों में उलझा देना चाहता था। वह इतना दूरदर्शी था कि उसने अयोध्या व लंका के मध्य दक्षिणी भारत के ‘दण्डक क्षेत्र’ में अपनी सैनिक चौकी भी स्थापित कर ली। अपनी योद्धा बहिन ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में खर-दूषण को सेनापति बनाकर अपनी सेना रख छोड़ी। इस प्रकार से भरतखण्ड में घुसपैठ करके उसने अपनी सैनिक शक्ति काफी मजबूत कर ली थी। यहां से उसने देवता वर्गऋषियों आदि पर अत्याचार करके अपना आतंक फैलाया। रावण की यह सैनिक चौकी रावण को भरतखण्ड की हर प्रकार की सूचना देती थी।
इधर अयोध्या में रघुवंशी दशरथ का समय था। उसने अपने पूर्वजों के इस प्रण को पूरा करने को कार्यरूप  दिया। दशरथ ने रावण के विनाश में सक्रियता दिखाई। वे भरतखण्ड के अगुवा बन गए। रावण का सामना करने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राम तथा लक्ष्मण को तत्कालीन शस्त्रविशारद् ‘विश्वामित्र’ के सान्निध्य में शस्त्र विद्या में पारंगत कराया। स्वयं विश्वामित्र भी रावण के अत्याचारों से परेशान थे। उन्होंने रावण के विनाश की स्वयं योजना बनाकर राम को इस योग्य बना दिया कि वे रावण का वध कर सकें। कालांतर में राम-लक्ष्मण को सीता सहित जन-मानस को रावण के विरूद्ध तैयार करने हेतु विविध राज्यों में भेजा। बहाना यह था कि उन्हें वनवास दिया गया है। वस्तुतः राम का कथित वनवास रावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का ही एक हिस्सा था। वनवास के आदेश में स्पष्ट था कि राम को सीधे ‘दण्डकारण्य’ में जाना है। वहीं पर रावण ने मोर्चा ले रखा था। उस काल में ऋषि-मुनि शासकों को परस्पर संपर्क में लाने का माध्यम थे। सारा सम्पर्क सूत्र वे ही थे तथा उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते थे। अतः वन में रहकर भी राम केवल वनवासी नहीं थे। वल्कल पहनकर भी वे राज्य प्रतिनिधि थे। बालि के वध के समय राम ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘किष्किंधा’ रघुवंशियों के ही अधिकार में है तथा भारत की तरफ से उन्होंने बालि को दण्ड इसलिए दिया है कि वह अयोध्या की राजनीति के प्रतिकूल सिद्ध हुआ है।’’
राम ने भी अपना डेरा ‘दण्डकारण्य’ में ही डाला जहां पर ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में रावण की सैनिक चौकी थी। पंचवटी नामक वह स्थल प्रसिद्ध था। वहां से राम भी रावण की हर गतिविधियों का ध्यान रखते हुए आदिवासी जन-मानस के सहयोग से सैनिक तैयारी करने लगे। अयोध्या यहां से इतनी दूर थी कि वहां से यहां जैसी तैयारी करना संभव नहीं था। यहीं पर रहकर राम ने उस क्षेत्र के आदिवासियों को सैनिक शिक्षा भी दी तथा उनके मन में राक्षसों के भय को दूर किया। उन्हें अपने अनुकूल बनाया। रावण को राम की इस कार्यवाही की पल-पल की जानकारी मिल रही थी। उसने राम की शक्ति को कमजोर करने के भरसक प्रयास किए। कई बार खर दूषण ने राम पर आक्रमण कियापरन्तु राम ने उनका वध कर दिया। स्वयं शूर्पणखा को अपनी जान बचाकर लंका को कूच करना पड़ा। अन्ततः रावण ने कूटनीति से काम लिया। उसने राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया। यह अपहरण विशुद्ध रूप से राजनीतिक अपहरण था ताकि राम का ध्यान सीता की तरफ बंट जाय तथा उनकी स्थिति कमजोर हो जाये। कुछ समय के लिए राम की ऐसी स्थिति हो भी गई थीपरन्तु राम ने सीता की खोज के साथ रावण के विरूद्ध अपना अभियान जारी रखा। रावण ने सीता को लंका के सर्वश्रेष्ठ उद्यान अशोक वाटिका में रखा जिसमें राज्योचित सुख-सुविधाऐं थीपरन्तु सीता ने उनका उपयोग नहीं किया। लेकिन रावण ने सीता के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। वह सामाजिक मर्यादाओं को राजनीति में नहीं घसीटना चाहता था। उसने सीता को पूर्ण सम्मान दिया। हांउस पर यह दबाव अवश्य डाला कि वह राम को बाध्य करे कि `वे रावण से दुश्मनी न रखे। सीता ने राम के सम्मान की रक्षा करते हुए रावण की बात नहीं मानी। यही कारण था कि युद्ध समाप्ति तक सीता को रावण की कैद में रहना पड़ा।


ऐसा राजनैतिक अपहरण नई बात नहीं थी। आज भी ऐसे अपहरण विश्व राजनीति में विद्यमान है।
रावण के विरूद्ध राम के अभियान के किष्किंधाधिपति वानर जाति के शासक बालि ने राम का प्रतिरोध कियाक्योंकि बाली की रावण से मित्रता थी। उसकी मित्रता के कारण रावण ने दण्डक वन में अपनी सैनिक चौकी स्थापित की थी। वरना रावण ऐसा कदाचित नहीं कर सकता था। (जैसा कि आज पाकिस्तान में अमेरिका जमा हुआ हैराम ने बाली के भाई सुग्रीव को अपनी ओर मिलाकर बाली का वध कर दिया तथा उसी की सेना की मदद से सीता का भी पता लगवाया। वानर जाति योद्धा जाति थी। हनुमानजामवन्तनलनील जैसे यौद्धा उसकी सेना में थे जो आगे चलकर राम-रावण युद्ध में राम को विजय दिलाने में प्रमुख सिद्ध हुए।
इनकी ही सहायता से राम ने लंका पर पूर्ण तैयारी के साथ चढ़ाई करने से पूर्व रावण से शांति वार्ता करने का प्रयास किया था ताकि युद्ध टाला जा सके। परन्तु रावण अहंकारीस्वाभिमानी एवं महत्वाकांक्षी था। वह जानता था कि देवता उसका अस्तित्व समाप्त करना चाहते हैं। उसे विश्वास था कि वह देवताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं पराक्रमी हैअतः युद्ध में कोई उसे परास्त नहीं कर सकता। उसने घुटने नहीं टेके तथा राम द्वारा दी गई युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिया।
अन्ततः राम-रावण के मध्य महायुद्ध हुआ। इस युद्ध में हर प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग हुआ। ये शस्त्रास्त्र विश्व विध्वंशक थे। आज की परिभाषा में कहा जाय तो परमाणु बम से लेकर मिसाइलों तक का उपयोग हुआ। उस समय इस प्रकार के युद्ध मायावी युद्ध के नाम से प्रचलित थे। युद्ध पृथ्वी पर एवं आकाश में भी हुआ। ज्वलनशील अस्त्रों के उपयोग से सर्वत्र विनाश हुआ। अंत में रावण तथा राक्षस जाति का अस्तित्व समाप्त हुआ तथा देवताओं के पक्ष में राम को विजय हासिल हुई।
परन्तु इस महायुद्ध के विनाश से विजयी पक्ष भी नहीं बच सका। क्योंकि शस्त्र शत्रु-मित्र के बीच भेद नहीं करता है। शस्त्र तो जिस पर गिरेगा उसी का विनाश करेगा। रावण की सेना द्वारा प्रयोग किए गए दिव्यास्त्रों से वानर जाति भी नष्ट हुई। यह बात गलत है कि राम के पक्ष में कोई हानि नहीं हुई।
हांइस महायुद्ध ने राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति दिला दी। जिस प्रकार से बीसवीं सदी में जर्मनी से परास्त करके यूरोप में नाजी पार्टी के अत्याचारों से मुक्ति मिली थी।
वास्तव में राम-रावण युद्ध दो महाशक्तियों का टकराव थाजिसके बीज स्वयं रावण ने ही बोये थे। इस महायुद्ध ने युद्धों को ऐसा विराम दिया कि सदियों पश्चात् ‘‘महाभारत’’ ही अगला महायुद्ध था।
राम-रावण के युद्ध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर ऐसा ही माना जायेगा कि पृथ्वी पर घटित होने वाली घटनाऐं अलौकिक न होकर वास्तविक थी। राम-रावण भी अलौकिक नहीं थेअपितु तत्कालीन राजनीति के अंग थे।

(लेखक रेवेन्यू बोर्ड अजमेर
, राजस्थान में वकालत करते हैं एवं इतिहास एवं पौराणिक वांग्मय पर   शोध परक लेखन में आपकी विशेष रुचि है)


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