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गुरुवार, 19 जनवरी 2012

दधिमती (जनवरी २०१२ )




दधिमती  (जनवरी २०१२ )



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मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कविता का जन्म !



[ सहज नहीं है काव्य सृजन,सहज है तो आलोचना ! काव्य सृजन की क्या परिस्थिति होती हैक्या कवि की मनस्थिति होती है कैसे होता है काव्य सृजन, से आप सुधि पाठकों को रू--रू कराने को प्रस्तुत है यह कविता - बी  जी शर्मा ]

कविता का जन्म


मन मे भरी हो विरह वेदनाया प्रिय से मिलने का उल्लास !
घोर निराशा का अन्धियाराया आशा उत्साह का हो प्रकाश !!


अन्तस् मे उबल रहा आक्रोशया पीड़ा से  भीगा  हो   मन !
कल्पना का अम्बार लगा होछोटा पड़ रहा मन का आँगन  !


ज्वालामुखी फट  पडने को होमन मे भट्टी  भावों  की तपती है !
कवि की कलम से फूटे  झरनातब कही एक गजल बनती है !!


शब्दों का नहीं भीड़ भड़क्कासार्थक शब्दों की पांत सजा दी !
भाषा है रथ  विषय है दूल्हाऔर भावों की  बारात  सजा दी !!


काव्य रसों की मेहंदी रचा करकविता  दुल्हन  बन  बैठी  है !
उपमा के गहनों से सजधज पाठक  के   मन  में   पैठी  है !!


कल्पनाओं के इन्द्रधनुष परविचारों की प्रत्यन्चा  तनती  है  !
सुधि  श्रोताओं का मन हरनेतब कविता या गजल बनती है !!


भूख प्यास नहीं नींद उचट गयी जाने क्यूँ मन है व्याकुल !
अजन्मी कविता बदले करवटइसीलिए कविवर है आकुल !!


भाव स्निग्ध पर शब्द मिलेमिले शब्द तो विषय अस्पष्ट !
अपूर्ण कविता कैसे पूर्ण  होकविवर का बस एक ही कष्ट !!


कोख  कमल में नौ महीने रखजैसे माँ बच्चा जनती है !
कवि  जब भुगते प्रसव वेदना, तब कहीं एक गजल बनती है





मंगलवार, 3 जनवरी 2012

आओ पतंग उड़ाओ


[
 दधिमती मासिक पत्रिका के स्तम्भ  "बाल फुलवारी"  के लिए मकर संक्रांति  के अवसर पर बाल मनो विज्ञान को ध्यान में रख कर लिखी गयी कवितायें ! चूँकि यह सृजन बच्चों के लिए है अतः बाल सुलभ मनोरंजन ही इन में देखें न कि बौद्धिकता ! हालांकि कवितायें शिक्षा प्रद व  संदेशपरक है !]

आओ पतंग उड़ाओ


आओ   आओ  पतंग  उडाओ
चुन्नू   आओ    मुन्नू   आओ
डोर  समेटो   चरखी   पकड़ो
बात सुनो  तुम यों  ना झगड़ो

पतंग   सिखाये   अच्छी  बात
अनुकूल   ना     हो      हालात
सहज  ही  न  डालो    हथियार
संघर्ष   को  तुम दो   नयी धार

हवा  विरोधी , ये    न  घबराती
प्रतिरोध  से   ये   शक्ति   पाती
विरोध  को  अवलम्ब  बनाकर
आसमान    को  यह  छू   जाती

डोर    है    मर्यादा   का    बंधन
बंधी   है   तब तक  ही पतंग  है
कटी   डोर    से   हुयी  निरर्थक
कटी पतंग  के  न  कोई  संग है


मम्मी पतंग दिलाओ


देखो हर छत पर  लोग जमा
चिल्लाये  लगा कर पूरा जोर
ये   काटा   और   ये      मारा
का मचा रहे हैं मिल कर शोर


मम्मी अब तुम मुझे दिला दो
मैं    भी   पतंग      उड़ा उंगा
ऊंचे   आसमान  ले  जा   कर
मैं     भी    पेंच       लड़ा उंगा


भैया  ज़रा   ये चरखी  पकड़ो
बात बात पर   यों ना अकडो
दीदी  लो  तुम    डोर   समेटो
मुह  ना फुलावो  यों  ना  एंठो

आओ मिल कर पतंग उड़ायें
आसमान  पर  हम छा जाएँ
मेल जोल  से दुनिया चलती
ये   समझें  सबको  समझाएं


अपनी  नहीं  मैं  कटने  दूंगा
औरों   की   मैं    दूंगा    काट
जो    लूटूँगा    डोर     पतंगें
सब  बच्चों  में   दुंगा     बाँट


फीनी


घेवर   की   पक्की  है   सहेली
मानो  बुनी   हो   रेशेदार पहेली
बुढ़िया   के  बालों  का   गुच्छा
या   सूती   धागों    का  लच्छा

खुशबु   देती  है   भीनी   भीनी
संग   मिली  जब  इसके चीनी
सबको  भाये  सबको ललचाये
संक्रांती   का  पकवान है फीनी


घेवर


प्रभु  हम  को  दो  यह मीठा   वर
खाने    को    मिल    जाए   घेवर
हो   रबड़ी    वाला    या  हो  सादा
पूरा   ना    हो    भले   हो    आधा

इस    व्यंजन     के  है   कई   भेद
रंग   बिरंगे   तो   कुछ   है  सफ़ेद
पर   देखो सबका  है  एक भूगोल
सब  का  चेहरा  है  चाँद  सा गोल



गुलगुला


मीठा   मीठा   फूला    फूला
मानो  हो  काला  रसगुल्ला
पानी  ये  मुह  में  ले  आता
घर में है यह सब को भाता

बिना  फूंक  मार  जो  खाए
उसकी  तो  ये जीभ जलाए
गुड है  इसका घटक प्रधान
सक्रांति का मुख्य पकवान

छोटों  की  संगत  न सहता
संग  बड़ों  के  हरदम रहता
बच्चे  जो  ये  कविता पढेंगे
पढ़कर  इसका स्वाद चखेंगे


लड्डू तिल के


घेवर   और  फीनी  की  जोड़ी
संग  रहे  दोनों  हिल मिल के
पर  व्यंजन  में  बेमिसाल  है
ताकत   देते   लड्डू   तिल के

चबा  चबा  के   खाओ  लड्डू
ये     ऊर्जा     देते     भरपूर
गजक  रेवड़ी  व तिल पट्टी
सर्दी    भगाये   कोसों     दूर

हल्ला  गुल्ला    खेल   कूद  व
पतंग उडाओ तुम सब मिल के
और   मिठाई     यदा  कदा लो
रोज   खाइए    लड्डू  तिल के
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