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रविवार, 21 अक्तूबर 2012

राक्षस जाति एवं रावण - एक परिचय

-देवदत्त शर्मा

  
(कई बार जो सत्य हम जानते हैं उसे ही अंतिम एवं निरपेक्ष सत्य मान बैठते हैपर ऐसा नहीं होता |. ज्यों ही हमारी जानकारी के परे कोई नयी बात हमारे समक्ष उद्घाटित होती हैवह हमें पहले स्तंभित करती हैफिर चकित एवं विस्मित करती है एवं अंत में हमें मुदित करती हैप्रस्तुत खोज परक लेख में राक्षस राज रावण से सम्बंधित कुछ नवीन जानकारियों से हमें रू--  रू कर रहे हैं। देवदत्त शर्मा  बाल की खाल निकालने वाले अर्थात वकील हैं (रेवेन्यु बोर्ड अजमेर में), उस पर प्रखर विद्वान् अर्थात करेला और नीम चढ़ा  तो आनंद लीजीये इस अभिनव रचना का-सम्पादक)



        उपनिषद्वेदपुराणधर्मशास्त्रइतिहास आदि ग्रन्थों में कई मानव जातियों का उल्लेख है। यथा - देवतादैत्यराक्षसकिन्नरयक्षनाग आदि । साधारणतः दैत्योंराक्षसों तथा दानवों को एक ही कोटि में मान लिया जाता था। परन्तु ये सभी पृथक-पृथक जातियां है। देवता और दैत्य तो रक्त संबंधी थे।
राक्षस जाति का जहां तक प्रश्न हैयह शब्द जातिगत न होकर कर्म के आधार पर है। राक्षस जाति प्रारम्भिक दृष्टि से श्रेष्ठ जाति थीपरन्तु शनैः-शनैः अत्याचारियों की प्रवृत्ति आ जाने के कारण बदनाम हो गई।  धर्मशास्त्रों एवं पुराणों में लंकेश रावण को  राक्षसराज कहा गया है। इस जाति में उसे सर्वाधिक सम्मानित माना गया। परन्तु सत्य यह है कि रावण राक्षस वंश का नहीं था। राक्षसों की उत्पत्ति एवं उनके अस्तित्व की कहानी ही अलग है।
सृष्टि के नियंता ब्रह्मा ने समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्राणियों को उत्पन्न किया। इन प्राणियों में से कुछ ने जल की रक्षा की जिम्मेदारी ली तोकुछ ने जल के यक्षण (पूजाकरना स्वीकार किया। जिन प्राणियों ने रक्षा का भार लिया वे राक्षस कहलाये तथा जिन्होंने यक्षण (पूजनस्वीकार कियावे यक्ष कहलाये। इस प्रकार राक्षस और यक्ष दो वर्ग हो गए। सृष्टि के हिसाब से देखा जाय तो राक्षसों ने पवित्र कार्य की जिम्मेदारी ली थी। जल की रक्षा सारे विश्व के लिए हितकर थी। इस परिप्रेक्ष्य में राक्षस जाति पवित्र जाति थी।
राक्षसों का प्रतिनिधित्व ‘हेति’ एवं ‘प्रहेति’ नामक दो भाईयों ने किया। ये दोनों दैत्यों के अधिपति ‘मधु-कैटभ’ के ही समान शक्तिशाली सिद्ध हुए। ‘प्रहेति’ धर्मात्मा थापरन्तु ‘हेति’ ने राजनीति को स्वीकार किया ‘हेति’ ने अपने राजनैतिक संबंध बढ़ाने हेतु ‘काल’ की पुत्री ‘भया’ से विवाह किया। उसके ‘विद्युत्केश’ नाम का पुत्र हुआ। उसका विवाह सन्ध्या की पुत्री ‘सालकटंकटा’ से हुआ। परन्तु सालकटंकटा ऐयाश औरत थी। जब उसके पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसने लावारिस छोड़ दिया। विद्युत्केश ने भी उस पुत्र की परवाह नहीं की। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान शिव एवं मां पार्वती की नजर उस नवजात पर पड़ी। उन्होंने उसे सुरक्षा प्रदान की। नवजात शिशु को त्याग देने के कारण मां पार्वती ने शाप दिया कि अब से राक्षस जातियाँ जल्दी गर्भ धारण करेंगी और उत्पन्न बालक तत्काल बढ़कर माता के ही समान अवस्था को प्राप्त होगा। संभवतः इसी कारण राक्षस जाति का विकराल रूप संसार में आया। इसके पूर्व इस जाति में शारीरिक आकर्षण एवं कांति विद्यमान हुआ करती थी।
विद्युत्केश एवं सालकटंकटा का परित्यक्त पुत्र ‘सुकेश’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिव के वरदान के कारण उसे अभय था तथा शिव ने उसे एक दिव्य आकाशचारी विमान भी दिया। अतः वह निर्भीक  होकर सर्वत्र विचरण करने लगा। सुकेश ने गंधर्व कन्या देववती से विवाह किया। देववती से सुकेश के तीन पुत्र हुए जिन्होंने राक्षस जाति में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। ये थे :
1. माल्यवान
2. सुमाली
3. माली
इन्हीं में से ‘सुमाली’ लंकाधिपति रावण के नाना थे। इन तीनों भाईयों ने वरदान और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की तथा ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। इन्होंने ब्रह्माजी से भाईयो का परस्पर स्नेह बना रहने तथा शत्रुओं पर सदा विजयी रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। यही कारण था कि इन तीनों भाईयों में कभी फूट पैदा नहीं हुई। आपस में इन्होंने कभी लड़ाई नहीं की। अपितुवरदान के प्रभाव से अंहकारी हो गये और देवताओं तथा असुरों को कष्ट देने लगे।
इन्होंने विश्वकर्मा से त्रिकूट पर्वत के निकट समुद्र के किनारे लंका का आवास प्राप्त किया। इस प्रकार लंका पर सर्वप्रथम ‘राक्षसो’ का आधिपत्य स्थापित हुआ। यह लंका सजलासुफला धरित्री थी। धन-वैभव की कोई कमी नहीं थी। यहां पर रहते हुए इन तीनों राक्षसों ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना आतंक फैला दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने विश्व विजय की कामना कर ली थी। इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने हेतु स्वयं ‘विष्णु’ ने इनसे युद्ध किया। एक समय तो सुमाली ने विष्णु को परेशान ही कर दियापरन्तु विष्णु ने पूर्ण शक्ति से इन राक्षसों को हराकर इन्हें लंका से खदेड़ दिया। तीनों राक्षस अपनी जाति सहित रसातल में जा बसे।
इन्हीं तीनों भाईयों के वंश से राक्षस जाति का विकास हुआ। आगे जाकर रावण के प्रबल महारथियों में इन्हीं के वंशज उसके सहायक बने। उन्हीं के बलबूते पर रावण ने विश्व विजय का अभियान प्रारम्भ किया था। इनके वंश के प्रमुख बलवानों में माल्यवान के - वज्रमुष्टिधिरूपार्श्वदुर्मुखसप्तवहनयज्ञकोपमत्तउन्मत्तनामक पुत्र तथा अनला नामक कन्या हुई। सुमाली के प्रहस्तअकम्पनविकटकालिकामुखधूम्राशदण्डसुपार्श्वसहादिप्रधसभास्कण नामक पुत्र तथा ‘रांका’, ‘पुम्डपोत्कटा’, ‘कैकसी’ एवं ‘कुभीनशी’ नामक पुत्रियां हुई। ‘कैकसी’ ही लंकेश रावण की माता थी। ‘माली’ के - अनलअनिलहर और संपात्ति नामक चार पुत्र हुए। रावणवध के पश्चात् लंकाधिपति बने विभीषण के ये ही मंत्री बने थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या रावण भी राक्षस था ? साधारणतः जो जनमानस उसे भी ‘राक्षसराज’ ही के रूप में जानते हैं। परन्तु सत्य यह है कि रावण स्वयं राक्षस जाति का नहीं था। राक्षसों का अधिपति बनने के कारण वह राक्षसराज और लंका का अधिपति बनने के कारण लंकेश कहलाया। रावण नाम भी उसका विशेषण हैन कि संज्ञा। उसका असली नाम तो दशग्रीव है। रावण नाम क्यों पड़ायह एक पृथक कहानी है।
फिररावण कौन था ? लंका का राज्य उसे कैसे मिला ? यह प्रश्न मन में जिज्ञासा पैदा करता है।
प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र ‘पुलस्त्य’ ऋषि थे। उन्हें ‘विश्रवा’ मुनि के नाम से जाना जाता है। ये ही दशग्रीव (रावणके पिता थे। इसीलिए रावण को पौलस्त्य भी कहा गया है। पुलस्त्य ऋषि बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इनके ब्राह्मण होने के कारण पितृकुल से रावण ब्राह्मण था। विश्रवा की पुत्री भरद्वाज मुनि की पुत्री थी जिससे कुबेर का जन्म हुआ। कुबेर भी बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इन्हें लोकपाल का पद मिला। इससे पहले यमइन्द्र एवं वरूण ही लोकपाल हुए थे।
जब माल्यवानसुमालीमाली आदि राक्षसों को विष्णु ने परास्त कर दिया एवं वे लंका छोड़कर रसातल में चले गएतब ब्रह्मा ने खाली हुई लंका कुबेर को सौंप दी। इस प्रकार लंका राक्षसों के हाथ से निकलकर लोकपाल के अधीन हो गई। लोकपाल कुबेर रावण का सौतेला भाई था।
राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी के विवाह का जब प्रश्न उठा तो सुमाली ने राक्षस जाति की भलाई के लिए तपस्वी विश्रवा से ही कैकसी से विवाह कराना चाहा। इसलिए किविश्रवा के वंशज थे। सुमाली को आशा थी कि इनसे वैवाहिक संबंध स्थापित करके राक्षसों का भला किया जा सकता है। सुमाली ने कैकसी के सम्मुख अपनी इच्छा व्यक्त की जिसे कैकसी ने स्वीकार कर लिया तथा सान्ध्य बेला में वह विश्रवा मुनि के पास गई। उस समय विश्रवा अग्निहोत्र कर रहे थे। यह बेला भयंकर थी। जब विश्रवा को कैकसी के मन्तव्य का पता चला तो मुनि ने कहा कि तुम्हारी इच्छा पूरी होगी परन्तु तुम कुबेला में आई हो अतः तुम्हारे पुत्र भयंकर दुराचारी एवं क्रूर स्वभाव वाले होंगे। उनका राक्षसों के साथ ही प्रेम रहेगा।
इस प्रकार कैकसी ने दुःखी मन से विश्रवा से निवेदन किया कि मुझे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए। विश्रवा ने उसकी विनम्रता से प्रसन्न होकर कहा कि उसका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्मा एवं ब्रह्मा के समान वंश वाला होगा।
कालान्तर में कैकसी ने प्रथमतः दशग्रीव (रावण), दूसरी बार कुम्भकर्णतीसरी बार शूर्पणखा (पुत्रीतथा चौथी बार विभीषण को जन्म दिया। विभीषण धर्मात्मा हुए जबकि शेष तीनों राक्षसी एवं क्रूर स्वभाव के साबित हुए।
कैकसी एवं विश्रवा का विवाह यह सिद्ध करता है कि राजनैतिक स्तर पर वैवाहिक संबंध पौराणिक परम्परा रही है।
इस प्रकार रावण पितृपक्ष से ब्रह्मा के वंश को होने के कारण ब्राह्मण था। परन्तु माता राक्षसकुल की होने के कारण एवं बाद में सुमाली द्वारा रावण को राक्षसों का अधिपति बना देने के कारण वह राक्षसों का ही हितैषी हो गया। सुमाली ने ही रावण को प्रेरित करके राक्षसों की मूल राजधानी लंका पर पुनः आधिपत्य कराया। चूंकि कुबेर लोकपाल थाअतः रावण ने उससे लंका छीन ली वरना भ्रातृप्रेम तो उसमें भी था। भाई के रूप में वह कुबेर को लंका से नहीं हटाना चाहता थापरन्तु सुमाली की जिद्द के कारण ही उसने ऐसा किया।
दशग्रीव का नाम रावण क्यों पड़ाइसके बारे में कहा जाता है कि विविध शक्तियां प्राप्त करके बलशाली होने पर रावण ने ‘कैलाश पर्वत’ को ही अपनी भुजाओं पर उठा लिया। इस पर क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने पैर के अंगूठे से ही कैलाश को दबाकर रावण की भुजाओं को पर्वत के नीचे दबा दिया व उसके अहं को तोड़ा। भुजाऐं पर्वत के नीचे दबने पर पीड़ा के कारण दशग्रीव ने जोर से रोदन (आर्तनाद) किया। तीनों लोक उसके रोदन से कांप उठे। रावण ने मन ही मन भगवान शिव की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर रावण की भुजाओं को मुक्त किया तथा चन्द्रहास दिया। उसके रोदन के कारण शिव ने दशग्रीव को ‘‘रावण’’ की संज्ञा दी। तभी से दशग्रीव का केवल ‘‘रावण’’ नाम ही प्रचलित हो गया। यही वह रावण था जिसे मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने मारकर पृथ्वी को राक्षसों के आतंक से मुक्त किया।

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राम-रावण युद्ध

- देवदत्त शर्मा 



दशग्रीव रावण ने घोर तपस्या द्वारा इच्छित वरदान प्राप्त कर विश्वविजयी अभियान चलाया था। उसने अपने अहंकार के कारण सारे विश्व को त्रस्त कर दिया था। कौशल नरेश ‘अनरण्य’ का वध करके उसने अयोध्या पर विजय प्राप्त करके समस्त देवताओं के अस्तित्व पर आघात किया था। कौशल (अयोध्याराज्य ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया था। इसी कड़ी में राम वनवास (दण्डकारण्यरावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का एक हिस्सा था। राम को रावण के घनिष्ठ मित्र बाली के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। दो महाशक्तियों के टकराव में समस्त विध्वंशक  शस्त्रादि के प्रयोग से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का ह्रास  हुआ।
वस्तुतः राम-रावण युद्ध एक महायुद्ध था। महायुद्ध तभी होते हैं, जब दो महाशक्तियों के बीच राजनैतिक विवादों को सुलझाने की सारी संभावनाऐं मिट जाती है। प्रत्येक राजनीतिज्ञ युद्ध को टालने का भरसक प्रयास करता है। क्योंकि वह युद्ध के भीषण परिणामों को जानता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है।
फिर भी समय-समय पर महायुद्ध हुए हैंतथा भविष्य में भी होने की आशंकाओं से घिरा विश्व आज भी भयभीत है। हजारों वर्षों पूर्व हुए देव-दानव युद्धराम-रावण युद्ध तथा महाभारत का युद्ध विश्वयुद्ध ही थे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए दो महायुद्धों के परिणाम तो हम अभी तक नहीं भूल पाए हैं। यही कारण है कि विश्व की बड़ी शक्तियां तृतीय महायुद्ध की भयावहता की कल्पना से कांप जाती है।
हर युग की राजनीति आगामी समय में इतिहास के रूप में जानी जाती है। अतः राम-रावण युद्ध को भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना अनुचित नहीं होगा। बिना राजनैतिक विवादों के महायुद्ध हो ही नहीं सकते और महायुद्धों के कारण यकायक पैदा नहीं होते हैं। अपितुसदियों तथा पीढ़ियों से पनपकर बड़े होते हैं। राम-रावण युद्ध के पीछे भी ऐसे ही कारण थे। अतः आवश्यक है कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम को अवतार पुरूष से परे एक शासक के रूप में देखना होगाक्योंकि वे एक देश (कौशलके राजा थे। वे तत्कालीन समय की एक महाशक्ति उत्तर कौशल राज्य (अयोध्याका प्रतिनिधित्व करते थे। भरतखण्ड के अधिकांश राज्य अयोध्या की सत्ता को स्वीकार करके उन्हें कर देते थे।
यही स्थिति लंकाधिपति रावण की थी। राक्षस जाति का वही एक शक्तिशाली प्रतिनिधि था। उत्तर कौशल के ही समान वह भी एशिया की महाशक्ति था। राम और रावण की शक्तियों को दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों के रूप में देखेंगे तो हमे उसको ऐतिहासिकता  का महत्व ज्ञात होगा। केवल धर्म और विश्वाससत्य-असत्य के विवाद में राम-रावण युद्ध की ऐतिहासिकता  की उपेक्षा करना इतिहास से दूर भागना है। मेरा आशय राम के प्रति श्रद्धालुओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं हैं। मैं तो केवल उस महायुद्ध की ऐतिहासिकता पर कुछ कहना चाहता हूं जिसे युद्ध ने समय को ऐसा मोड़ दिया कि उससे सबक मिला। सदियों तक शासकों ने उसे याद रखा तथा यथासंभव युद्धों को टाला। यही कारण था कि अगला महायुद्ध उसके पश्चात् सदियों के अन्तराल के बाद भी तब हुआजब उसका टालना अवतार पुरूष माने जाने वाले यदुवंशी श्रीकृष्ण के लिए भी संभव नहीं रह गया था।
आज की राजनीति कल का इतिहास बनती है। अतः राम-रावण युद्ध के ऐतिहासिक महत्व को जानने के लिए हमें इन दोनों महाशक्तियों की राजनैतिक परिस्थितियों को समझना होगा।
राजनीति में अपने प्रतिद्वंद्वी को जड़ से समाप्त करना कोई नई बात नहीं है। जब से सृष्टि बनीयही परिपाटी राजनीति में मिलती है।
उत्तर कौशल (अयोध्यापर इक्ष्वाकु कुल पीढ़ियों से एकछत्र राज्य करता रहा था। इस वंश में पराक्रमी राजा हुए थे। सम्पूर्ण भरतखण्ड पर उनका सदा ही प्रभाव रहा। अतः यह स्वाभाविक था कि जो भी उनके विरूद्ध सिर उठाताउसको कुचल दिया जाता। देवता तक अयोध्या नरेश की कृपा के आकांक्षी रहते थे।




परन्तु भारत के दक्षिणी छोर पर समुद्र पार लंका में राक्षस जाति का शासन था। वस्तुतः समुद्रगत जल की सुरक्षा के लिए नियुक्त रक्ष संस्कृति से व्युत्पन्न वर्ग ही राक्षस (रक्षकजाति थी। प्रजापिता ब्रह्मा ने इनकी नियुक्ति की थी। इनको आवास के लिए सजला-सुफला ‘लंका’ नामक स्थान उपलब्ध किया था। यह जाति अति शक्तिशाली एवं पराक्रमी सिद्ध हुई। इस जाति में माल्यवानसुमाली एवं माली नामक राक्षस तो इतने शक्तिशाली थे कि उनसे देवताओं को अपने अस्तित्व का ही भय हो गया था। अतः सबने संगठित होकर बड़ी कठिनाई से उन्हें लंका से भगाकर लंका पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु कालान्तर में सुमाली के दोहित्र (प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र विश्रवा का पुत्रदशग्रीव (रावणने अपने पराक्रम द्वारा देवताओं से लंका वापिस छीनकर वहां का अधिपति बन बैठा। रावण इतना पराक्रमी हुआ कि उसने विश्वविजयी बनने की कामना करके दिग्विजयी अभियान प्रारम्भ कर दिया। उसने सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया। सम्पूर्ण एशिया में रावण का डंका बजने लगा। इस अभियान में उसने उत्तर कौशल (अयोध्यापर भी आक्रमण किया तथा वहां के राजा ‘अनरण्य’ (राम के पूर्वजको मारकर विजय प्राप्त की।
उत्तर कौशल पर रावण की विजय देवताओं के अस्तित्व को चुनौती थी। यदि रावण का विनाश नहीं किया गया तोक्या होगासभी ने अयोध्या के नेतृत्व में रावण के विनाश की योजना बनाने में शीघ्रता की। अयोध्या के अधिपति ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया। परन्तु दशरथ की पीढ़ी तक भी कोई रावण को परास्त नहीं कर सका। यही कारण था कि रावण की अयोध्या से स्थाई शत्रुता हो गई। रावण भी सावधान हो गया। उसने देवताओं को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया। भरतखण्ड के नागरिकों पर उसने अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। वस्तुतः ऐसा करके वह अयोध्या को आन्तरिक मामलों में उलझा देना चाहता था। वह इतना दूरदर्शी था कि उसने अयोध्या व लंका के मध्य दक्षिणी भारत के ‘दण्डक क्षेत्र’ में अपनी सैनिक चौकी भी स्थापित कर ली। अपनी योद्धा बहिन ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में खर-दूषण को सेनापति बनाकर अपनी सेना रख छोड़ी। इस प्रकार से भरतखण्ड में घुसपैठ करके उसने अपनी सैनिक शक्ति काफी मजबूत कर ली थी। यहां से उसने देवता वर्गऋषियों आदि पर अत्याचार करके अपना आतंक फैलाया। रावण की यह सैनिक चौकी रावण को भरतखण्ड की हर प्रकार की सूचना देती थी।
इधर अयोध्या में रघुवंशी दशरथ का समय था। उसने अपने पूर्वजों के इस प्रण को पूरा करने को कार्यरूप  दिया। दशरथ ने रावण के विनाश में सक्रियता दिखाई। वे भरतखण्ड के अगुवा बन गए। रावण का सामना करने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राम तथा लक्ष्मण को तत्कालीन शस्त्रविशारद् ‘विश्वामित्र’ के सान्निध्य में शस्त्र विद्या में पारंगत कराया। स्वयं विश्वामित्र भी रावण के अत्याचारों से परेशान थे। उन्होंने रावण के विनाश की स्वयं योजना बनाकर राम को इस योग्य बना दिया कि वे रावण का वध कर सकें। कालांतर में राम-लक्ष्मण को सीता सहित जन-मानस को रावण के विरूद्ध तैयार करने हेतु विविध राज्यों में भेजा। बहाना यह था कि उन्हें वनवास दिया गया है। वस्तुतः राम का कथित वनवास रावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का ही एक हिस्सा था। वनवास के आदेश में स्पष्ट था कि राम को सीधे ‘दण्डकारण्य’ में जाना है। वहीं पर रावण ने मोर्चा ले रखा था। उस काल में ऋषि-मुनि शासकों को परस्पर संपर्क में लाने का माध्यम थे। सारा सम्पर्क सूत्र वे ही थे तथा उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते थे। अतः वन में रहकर भी राम केवल वनवासी नहीं थे। वल्कल पहनकर भी वे राज्य प्रतिनिधि थे। बालि के वध के समय राम ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘किष्किंधा’ रघुवंशियों के ही अधिकार में है तथा भारत की तरफ से उन्होंने बालि को दण्ड इसलिए दिया है कि वह अयोध्या की राजनीति के प्रतिकूल सिद्ध हुआ है।’’
राम ने भी अपना डेरा ‘दण्डकारण्य’ में ही डाला जहां पर ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में रावण की सैनिक चौकी थी। पंचवटी नामक वह स्थल प्रसिद्ध था। वहां से राम भी रावण की हर गतिविधियों का ध्यान रखते हुए आदिवासी जन-मानस के सहयोग से सैनिक तैयारी करने लगे। अयोध्या यहां से इतनी दूर थी कि वहां से यहां जैसी तैयारी करना संभव नहीं था। यहीं पर रहकर राम ने उस क्षेत्र के आदिवासियों को सैनिक शिक्षा भी दी तथा उनके मन में राक्षसों के भय को दूर किया। उन्हें अपने अनुकूल बनाया। रावण को राम की इस कार्यवाही की पल-पल की जानकारी मिल रही थी। उसने राम की शक्ति को कमजोर करने के भरसक प्रयास किए। कई बार खर दूषण ने राम पर आक्रमण कियापरन्तु राम ने उनका वध कर दिया। स्वयं शूर्पणखा को अपनी जान बचाकर लंका को कूच करना पड़ा। अन्ततः रावण ने कूटनीति से काम लिया। उसने राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया। यह अपहरण विशुद्ध रूप से राजनीतिक अपहरण था ताकि राम का ध्यान सीता की तरफ बंट जाय तथा उनकी स्थिति कमजोर हो जाये। कुछ समय के लिए राम की ऐसी स्थिति हो भी गई थीपरन्तु राम ने सीता की खोज के साथ रावण के विरूद्ध अपना अभियान जारी रखा। रावण ने सीता को लंका के सर्वश्रेष्ठ उद्यान अशोक वाटिका में रखा जिसमें राज्योचित सुख-सुविधाऐं थीपरन्तु सीता ने उनका उपयोग नहीं किया। लेकिन रावण ने सीता के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। वह सामाजिक मर्यादाओं को राजनीति में नहीं घसीटना चाहता था। उसने सीता को पूर्ण सम्मान दिया। हांउस पर यह दबाव अवश्य डाला कि वह राम को बाध्य करे कि `वे रावण से दुश्मनी न रखे। सीता ने राम के सम्मान की रक्षा करते हुए रावण की बात नहीं मानी। यही कारण था कि युद्ध समाप्ति तक सीता को रावण की कैद में रहना पड़ा।


ऐसा राजनैतिक अपहरण नई बात नहीं थी। आज भी ऐसे अपहरण विश्व राजनीति में विद्यमान है।
रावण के विरूद्ध राम के अभियान के किष्किंधाधिपति वानर जाति के शासक बालि ने राम का प्रतिरोध कियाक्योंकि बाली की रावण से मित्रता थी। उसकी मित्रता के कारण रावण ने दण्डक वन में अपनी सैनिक चौकी स्थापित की थी। वरना रावण ऐसा कदाचित नहीं कर सकता था। (जैसा कि आज पाकिस्तान में अमेरिका जमा हुआ हैराम ने बाली के भाई सुग्रीव को अपनी ओर मिलाकर बाली का वध कर दिया तथा उसी की सेना की मदद से सीता का भी पता लगवाया। वानर जाति योद्धा जाति थी। हनुमानजामवन्तनलनील जैसे यौद्धा उसकी सेना में थे जो आगे चलकर राम-रावण युद्ध में राम को विजय दिलाने में प्रमुख सिद्ध हुए।
इनकी ही सहायता से राम ने लंका पर पूर्ण तैयारी के साथ चढ़ाई करने से पूर्व रावण से शांति वार्ता करने का प्रयास किया था ताकि युद्ध टाला जा सके। परन्तु रावण अहंकारीस्वाभिमानी एवं महत्वाकांक्षी था। वह जानता था कि देवता उसका अस्तित्व समाप्त करना चाहते हैं। उसे विश्वास था कि वह देवताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं पराक्रमी हैअतः युद्ध में कोई उसे परास्त नहीं कर सकता। उसने घुटने नहीं टेके तथा राम द्वारा दी गई युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिया।
अन्ततः राम-रावण के मध्य महायुद्ध हुआ। इस युद्ध में हर प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग हुआ। ये शस्त्रास्त्र विश्व विध्वंशक थे। आज की परिभाषा में कहा जाय तो परमाणु बम से लेकर मिसाइलों तक का उपयोग हुआ। उस समय इस प्रकार के युद्ध मायावी युद्ध के नाम से प्रचलित थे। युद्ध पृथ्वी पर एवं आकाश में भी हुआ। ज्वलनशील अस्त्रों के उपयोग से सर्वत्र विनाश हुआ। अंत में रावण तथा राक्षस जाति का अस्तित्व समाप्त हुआ तथा देवताओं के पक्ष में राम को विजय हासिल हुई।
परन्तु इस महायुद्ध के विनाश से विजयी पक्ष भी नहीं बच सका। क्योंकि शस्त्र शत्रु-मित्र के बीच भेद नहीं करता है। शस्त्र तो जिस पर गिरेगा उसी का विनाश करेगा। रावण की सेना द्वारा प्रयोग किए गए दिव्यास्त्रों से वानर जाति भी नष्ट हुई। यह बात गलत है कि राम के पक्ष में कोई हानि नहीं हुई।
हांइस महायुद्ध ने राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति दिला दी। जिस प्रकार से बीसवीं सदी में जर्मनी से परास्त करके यूरोप में नाजी पार्टी के अत्याचारों से मुक्ति मिली थी।
वास्तव में राम-रावण युद्ध दो महाशक्तियों का टकराव थाजिसके बीज स्वयं रावण ने ही बोये थे। इस महायुद्ध ने युद्धों को ऐसा विराम दिया कि सदियों पश्चात् ‘‘महाभारत’’ ही अगला महायुद्ध था।
राम-रावण के युद्ध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर ऐसा ही माना जायेगा कि पृथ्वी पर घटित होने वाली घटनाऐं अलौकिक न होकर वास्तविक थी। राम-रावण भी अलौकिक नहीं थेअपितु तत्कालीन राजनीति के अंग थे।

(लेखक रेवेन्यू बोर्ड अजमेर
, राजस्थान में वकालत करते हैं एवं इतिहास एवं पौराणिक वांग्मय पर   शोध परक लेखन में आपकी विशेष रुचि है)


बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

रावण दशानन नहीं एकानन था !

-तरुण कुमार दाधीच

( धरती चपटी है, यह स्थापित मान्यता थी। किन्तु नव खोज एवं अनुसन्धान ने सिद्ध किया कि धरती गोल है। ठीक वैसे ही स्थापित मान्यता है कि रावण के दस सिर थे। किन्तु दधिमती लेखक परिवार से हाल ही में जुड़े विद्वान लेखक श्री तरुण कुमार दाधीच का यह अनुसंधानपरक लेख इस विषय पर आपको निश्चित ही नवदृष्टि देगा संपादक )


          
हमारी संस्कृति में त्यौहारमाला में मोतियों की भांति पिरोये हुए हैं । प्रत्येक त्यौहार अपना सामाजिकधार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व रखता है । विजय दशमी का त्यौहार सांस्कृतिक दृष्टि से भगवान राम की असत्य पर सत्य कीअधर्म पर धर्म की विजय के फलस्वरुप हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । रावण बुरे कार्यों काकुम्भकरण आलस्य का औेर मेघनाद कटु वचनों के प्रतीक के रूप में इनके पुतले प्रतिवर्ष जलाए जाते हैं, ताकि हम बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों की ओर प्रेरित हों ।
         रावण के बारे में यह प्रश्न उठता है कि उसके दस सिर थे अथवा नहीं ? महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसी के अनुसार रावण दस सिर वाला अर्थात् दशानन नहीं था । वस्तुतः रावण के पुतले में दर्शाए गए दस सिरों में पाँच पुरुष और पाँच स्त्री के विकारों को प्रकट करते हैं । उसके पुतले पर लगा गधे का सिर यह प्रकट करता है कि वह मतिहीन एवं हठी था । यह भी सर्वविदित है कि रावण ज्ञानी और महापंडित था । क्योंकि पुतले में रावण के हाथों में अस्त्र-शस्त्र के साथ वेद और शास्त्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । रावण में अच्छाइयों और बुराइयों का मिश्रण था, परन्तु वह अपने अदम्य अभिमान के कारण मारा गया । वाल्मीकि ने अपनी रामायण में स्पष्ट उल्लेख किया है कि जब हनुमानसीता का पता लगाने लंका गए थे तब उन्होंने रावण को एक सिर वाला देखा । रावण के दस सिर थे अथवा नहीं ? इस सम्बन्ध में अनेक मत है । इन मतों के आधार पर रावण को दशानन नहीं कहा जा सकता है ।
         कहा जाता है कि महापंडित रावण चार वेद और छः शास्त्र का ज्ञाता होने के कारण दोनों के संयुक्त योगफल दस के प्रतीक स्वरूप दशानन कहलाया । यह भी कहा जाता है कि उस समय रावण के पास ऐसा यंत्र था जो उसे दसों दिशाओं की जानकारी देता था । इस कारण उसे दशानन कहा गया । ' जैन पद्म पुराण ' में महाकवि रविषेणाचार्य ने स्पष्ट लिखा है कि रावण के गले में नौ मणियों युक्त एक कंठ हार था जिसमें उसके नौ प्रतिबिम्ब दिखते थे । इस कारण से रावण को दशानन कहा जाने लगा । यह भी कहा जाता है कि रावण का साम्राज्य दस राज्यों तक फैला था । अतः ये दस राज्य रावण के आनन थे और वह दशानन कहलाया ।
         इन पौराणिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि रावण के दस सिर नहीं अपितु एक सिर ही था । रावण की राजसिक श्रद्धा अत्यंत ही प्रबल थी क्योंकि बड़ी से बड़ी सिद्धि प्राप्त करने के लिए उसने कभी ब्राह्मण को बलि का साधन नहीं बनाया बल्कि अपने उपास्य देव शिव को अपने ही सिरों की आहुति देकर प्रसन्न किया। रावण ने दस बार अपना सिर शिव को अर्पित किया । इस कारण भी रावण दशानन कहलाया ।
         रावण पर राम की विजय की स्मृति में विजय दशमी का पर्व परम्परागत रूप से मनाया जाता है । वर्तमान युग में मनुष्यकामक्रोघमदलोभमोह रुपी पंच विकारों में लिप्त है । अधर्मभ्रष्टाचारसाम्प्रदायिकताअशांति होने के कारण वर्तमान युग को रावण राज्य भी  कहते है । इन सभी विकारों का परित्याग कर राम-राज्य की कल्पना की जा सकती है।


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रविवार, 14 अक्तूबर 2012

प्रत्यक्ष हनुमान : जाखू हिम पर्वतमाला




       ‘‘धरती पर प्रत्यक्ष रूप से अगर पवन-पुत्र हनुमान जी के दर्शन करने हो तो देव भूमि हिमाचल की राजधानी शिमला जरूर जावें’’ यह बात अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातनाम न्यूरो सर्जन जो कि मेरे मित्र हैंडॉनगेन्द्र शर्मा ने कही। तभी से मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे देवभूमि जाकर रामभक्त हनुमानजी के दर्शन करने हैं।
     14 जून, 2012 को मैं परिवार सहित शिमला पहुंचा तथा हनुमानजी के दर्शन को आतुर हिम पहाड़ियों के मध्य स्थित मन्दिर में गया। पौराणिक कथाओं के अनुसार तथा वहां लगे शिलालेख के आधार पर यह मन्दिर जाखू पहाड़ी पर स्थित है।
     शिमला शहर से मात्र 2 कि.मीकी दूरी पर घने पहाड़ी तथा देवदार के वृक्षों से घिरी पर्वतमाला जिसे जाखू पहाड़ी कहते हैं। जहां पर यह मन्दिर स्थित है। समुद्रतल से 8500  फीट की ऊँचाई तथा शिमला शहर के ऐतिहासिक रिज मैदान के पूर्व में होने से आसानी से पहुंचा जा सकता है।



     इतिहास - पौराणिक तथा रामायणकाल के पूर्व राम तथा रावण के मध्य लंका विजय के दौरान मेघनाद के तीर से भगवान राम के अनुज लक्ष्मण घायल एवं बेहोश हो गये थे। उस समय सब उपचार निष्फल हो जाने के कारण वैद्यराज ने कहा कि अब एक ही उपचार शेष बचा है। जिसमें हिमालय के पर्वतमाला की संजीवनी जड़ी बूटी है जो इनका जीवन बचा सकती है। इस संकट की घड़ी में रामभक्त हनुमान ने कहा कि प्रभु मैं संजीवनी लेकर आता हूँ। आदेश पाकर हनुमान हिमालय की ओर उड़ेरास्तें में उन्होंने नीचे पहाड़ी पर ‘‘याकू’’ नामक ऋषि को देखा तो वे नीचे पहाड़ी पर उतरे। जिस समय पहाड़ी पर उतरे उस समय इस पहाड़ी ने उनके भार को सहन नहीं किया परिणामस्वरूप पहाड़ी जमीन में धंस गई। मूल पहाड़ी आधी से ज्यादा धरती में समा गई इस पहाड़ी का नाम जाखू है। यह जाखू नाम ऋषि ‘‘याकू’’ के नाम पर पड़ा। श्री हनुमान ने ऋषि को नमन कर संजीवनी बूटी के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त की तथा ऋषि से वायदा किया कि संजीवनी लेकर जाते समय ऋषि आश्रम जाखू पहाड़ी पर जरूर आयेंगे परन्तु संजीवनी लेकर वापस जाते समय रास्ते में ‘‘कालनेमी’’ राक्षस द्वारा रास्ता रोकने पर उससे युद्ध कर परास्त किया। इसी दौरान समय ज्यादा व्यतीत हो जाने के कारण सूक्ष्म भाग से लंका पहुंचने का निश्चय कर रवाना हुए जहां श्रीराम उनका इन्तजार कर रहे थे। उसी भागमभाग तथा समयाभाव के कारण श्री हनुमान वापसी यात्रा में ऋषि ‘‘याकू’’ के आश्रम में जा नहीं सके जहां पर ऋषि श्री हनुमान का इन्तजार कर रहे थे। श्री हनुमान ‘‘याकू’’ ऋषि को नाराज नहीं करना चाहते थे इस कारण अचानक प्रकट होकर वस्तुस्थिति बताकर अलोप (गायबहो गये। ऋषि याकू ने श्री हनुमान की याद में वहां मन्दिर निर्माण करवाया। मन्दिर में जहां पर हनुमानजी ने अपने चरण रखे थेउन चरणों को मारबल पत्थर से बनवाकर रखे गये हैं तथा ऋषि ने वरदान दिया कि बन्दरों के देवता हनुमान जब तक यह पहाड़ी है लोगों द्वारा पूजे जावेंगे।
     आज भी हजारों की संख्या में पर्यटक यहां पर आते हैंतथा बन्दरों को मूंगफली तथा केले आदि खिलाते हैंजो प्रेम से खाते हैं। इसी मन्दिर परिसर में गत तीन वर्षों पहले 108 फीट ऊँचे कद की आधुनिक नवीन तकनीकी युक्त हनुमान मूर्ति का निर्माण करवाया गया। इस मूर्ति निर्माण में 1.5 करोड़ की लागत आई तथा यह मूर्ति 1.5 टन वजनी है। मूर्ति निर्माण में सैंसर लगाया गया है जिससे पक्षी आदि मूर्ति पर नहीं बैठे।
     यात्रा का सही समय - मार्च से जून तक का समय अत्यंत ही उपयुक्त है। भारत के प्रत्येक बड़े शहर/राज्य की राजधानी से ‘‘कालका’’ रेल्वे स्टेशन जुड़ा हुआ है। यहां तक आने के बाद यहां से छोटी लाईन से ‘‘खिलौना ट्रेन’’ के माध्यम से शिमला पहुंचा जा सकता है। बस सुविधा भी कालका से उपलब्ध है। सर्दियों में शिमला का तापमान 2 डिग्री से.ग्रेसे 8 डिग्री से.ग्रेतक रहता है। अक्टूबर से फरवरी तक यहां पर बर्फ गिरती है जहां स्नोफॉल एवं स्केटिंग का पर्यटक आनन्द लेते हैं।
     मन्दिर में दर्शन समय - गर्मियों में प्रातः 7 बजे से रात्रि 8 बजे तक तथा सर्दियों में प्रातः 8 बजे से सायं 6 बजे तक दर्शन करने हेतु मंदिर खुला रहता है।



    सावधान - मन्दिर प्रवेश के समय बन्दरों की बहुतायत होती है इसलिए बन्दरों से छेड़-छाड़ नहीं करें तथा बिना छेड़-छाड़ बन्दर किसी को भी हानि नहीं पहुंचाते हैं। बच्चों का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।                      


.    दाधीच रामगोपाल शर्मा (जन सम्पर्क अधिकारी,जोधपुर) 


गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

ईर्ष्या ; व्यक्तित्व का लुभावना छिद्र

( जीवन दर्शन )
                                                                                
                                                                                                               - रामकुमार तिवाड़ी, लाडनूं


( है तो यह विडम्बना पर है सच कि अधिकांश व्यक्ति अपने दुःख से दुखी कम व दूसरों के सुख से दुखी ज्यादा होते हैं,. ऐसे परसुख कातर व्यक्तियों एवं उनकी मनोवृति को केन्द्र में रख कर व्यंग्य लेखन प्रस्तुत है श्री रामकुमार जी तिवाड़ी का,जो मूलतः लाडनूं, जिला नागौर, राजस्थान निवासी एवं सेवा निवृत शिक्षक हैं- संपादक )

        

इस शहर में हमारी स्मृतियां जुड़ी हुई है। प्रवेश करते-करते बहुत भला लगा। ऊँची इमारतों को देख कर लगा शहर प्रगति पर है। सम्पन्नता बढ़ रही है। शास्त्री जी के यहां पहुंचते-पहुंचते सारी खुशियां किरकिरी हो गई। पूरा शहर तरक्की करे हमें मंजूर है। परन्तु शास्त्री जी तो हमारे मित्र हैं, उनके दो मकानहमारे चुभन होने लगी। परन्तु करें भी क्या ? कुछ घुमा फिरा आलोचना कर मन को शान्त किया।
        हजारों पुलिस अधिकारी हैं, और भी बनेंगे। गत वर्ष वर्मा जी का पुत्र थानेदार बन गया। यह बुरा हुआ। वर्मा तो हमारा परम मित्र है, उनका पुत्र हमारे पुत्र से अधिक अर्जित करे, यह सहजता से कैसे स्वीकार हो सकता है ? संगठन में अनेक पदाधिकारी है। जबसे मिश्रा जी चमके हैं, और चुने गये हैं, हमारी बारह बज गई है। क्योंकि ये हमारे निकटस्थ हैऔर निकटस्थ की सफलता से हमारी छाती पर सांप लोटना स्वाभाविक ही है। दुनिया सम्पन्न हो जाय, हमें तो आज तक कभी दुःख हुआ ही नहीं, परन्तु हमारी आंखों के सामने हमारा कोई निकटस्थ एवं घनिष्ठ मित्र सम्बन्धी सफल होता है, तो हम ऊपर से तो बहुत प्रशंसा कर देते हैंपर अन्दर की बात तो हर एक को कैसे बतायें कि हमारे खून सूखने का एक कारण यह भी है।
        प्रयोगशाला में एक खुले मुँह का जार देखा तो पूछा - भाई इस जार का मुंह खुला है, अन्दर के जन्तु बाहर निकल जायेंगे। उत्तर था – नहीं, ऐसा नहीं होगा। इस जार में केंकड़े हैं। ज्योंही एक केंकड़ा ऊपर उठने का प्रयास करता है, दूसरा उसकी टांग खींच लेता है।
        अपनी भी यही गति है। हमसे छूटेगी भी नहीं, क्योंकि इसे हम बचपन से पालते आ रहे हैं। हमने पहली बार हमारा परीक्षा परिणाम अखबार में देखा। हमारे रोल नम्बर से पहले हमारी सहपाठी स्वामी के रोल नम्बर दिख गये। हमें तो वहीं सांप सूंघ गया। हम उत्तीर्ण हों या नहीं, परन्तु ये अनुत्तीर्ण हो जाता तो भय नहीं रहता। अपने एक मित्र हैं, पत्र-पत्रिकाओं में बहुत छपते हैंसच पूछो तो हमें कोई बीमारी नहीं है। फिर भी हम दुबले होते जा रहे हैं। लाखों साहित्यकार हैं, और बनेंगे परन्तु जब से हमारा मित्र इस श्रेणी में आया है, हम सूखते जा रहे हैं।
        ये तो कुछ उदाहरण मात्र है। बाकी हम ईर्ष्या में आकंठ डूबे हुए हैं। पक्षी आसमान में बहुत ऊँचाई पर उड़ रहा है, परन्तु उसकी दृष्टि जमीन की गंदगी पर है। जरा आत्म-चिन्तन करें, कहीं हम भी ऐसी ही उड़ान तो नहीं भर रहें हैं। और लगे कि कुछ ऐसा ही है, तो हम किसका भला करने जा रहे हैं ? यह तो व्यक्तित्व का एक लुभावना छिद्र हैजिसके रहते व्यक्तित्व का विकास बालू में से तेल निकालने के समान है। हम एक ऐसे दलदल में फंसे जा रहे हैं, जहां पास में एक सरोवर भी है परन्तु हमें सरोवर के पास जाना पसन्द नहीं। हम चाहते हैं दूसरे लोग भी दलदल में फंसे।
        कैसी विडम्बना है। आवश्यकता दलदल से निकलने की हैउसे सुखाने की है। परन्तु हमारा मन्त्व्य सरोवर को ही सुखाने का है। उसे भी दलदल बनाने का है। हमारा जीवन चेतन है। यहां हर एक को चेतना है। गाड़ीवान का पशु लड़खड़ाता है तो वह कहता है, चेतचेतहम भी लड़खड़ा रहे हैं, पर चेतना नहीं चाहते। आवश्यकता चेतने की है दूसरों के प्रति दुर्भावना उखाड़ फेंकने की है। आइये, अपने आस पास के परिवेश से प्रेम करेंस्नेह लुटायें।
        हम जो वस्तु बांटते हैं। वही हमारे पास आती है। हंसी और प्रेम बांटने वालों को ईश्वर हंसी और प्रेम ही भेजता है। हम सबने दुकाने खोल रखी हैउसी का स्टॉक बढ़ता जाता है। हम जलनईर्ष्याअसन्तोषकुढ़न की दुकान खोल कर अपने लिए प्रेमस्नेहसंतोष का वर प्राप्त करना चाहते हैं। इतना बड़ा झूठ चल नहीं सकता यह हमें लील जायेगा।
        अतः हमें अपनों के लिए स्नेह के फूल खिलाने ही होंगे। इमर्सन ने ठीक कहा था,‘‘जाओ अपने बीवीबच्चों को प्यार करोअपने लकड़हारे से प्यार करो।’’
        सीधा सा, सरल सा मूल्यांकन है। हमें अगर पड़ौस की खुशियां अच्छी लगती है, तो हमारी गाड़ी पटरी पर है। आगे बढ  रही है, और अगर द्वेष है तो हमारी गाड़ी पटरी छोड़ रही है। हमारा पतन तो निश्चित है ही परन्तु एक ऐसी बदबू भी छोड़ जायेंगे, जिसे फैलाने का अधिकार हमें कतई नहीं था।


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