-देवदत्त शर्मा.अजमेर
विष्णु पुरूषार्थ के प्रतीक हैं तथा हमारे
हाथ पुरूषार्थ के माध्यम। इसीलिए वेदों में यह उक्ति है - ‘कराग्रे वसति
लक्ष्मी’
धन! अर्थात् लक्ष्मी की
आकांक्षा प्रत्येक प्राणी को होना स्वाभाविक है, क्योंकि
यही जीवन का आधार है। यही विकास की रीढ़ है। अतः हर इंसान, चाहे वह किसी भी देश में हो, अधिकाधिक धन
अर्जित करने की दौड़ में रहता है। ईमानदारी से, बेईमानी
से, भ्रष्टाचार से, येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्त करने की लालसा ने मनुष्यता
खो दी है। इंसान स्वार्थी एवं हिंसक होता जा रहा है। मानव मूल्य विलुप्त हो रहे
हैं। भारत आध्यात्मिक देश है। हमारी संस्कृति में मानव मूल्यों को महत्व देते हुए
जीवन के आधार स्तम्भ धन की प्राप्ति हेतु एकमात्र पुरूषार्थ पर जोर दिया गया है।
पुरूषार्थ से अर्जित धन ही फलदायी माना गया है। ऐसे धन को ही ‘‘लक्ष्मी’’ की संज्ञा दी गई है। एतदर्थ भारतीय समाज
में लक्ष्मी पूजन की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या की
काल रात्रि में दीपावली के दीयों की जगमगाहट भरे उल्लसित वातावरण में लोग लक्ष्मी
का पूजन करके यह प्रार्थना करते हैं कि उनके घर में लक्ष्मी विराजमान हो, ताकि जीवन निर्विघ्न चलता रहे। लेकिन एक कटु सत्य यह है कि पूजा करने
मात्र से लक्ष्मी मेहरबान नहीं हो सकती है। लक्ष्मी तो पुरूषार्थ की दासी है। जो
अधिक पुरूषार्थ करेगा उस पर लक्ष्मी उतनी ही अधिक मेहरबान होगी। पुराणों में इसका
ठोस सबूत विद्यमान है। समुद्र मंथन के समय जब मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को ‘‘मथानी’’ बनाया गया तो उसे टिकाने के लिए आधार
स्वरूप स्वयं विष्णु को कच्छप (कूर्म) बनकर समुद्र में मंदराचल को धारण करना पड़ा था। उसी आधार पर समुद्र मंथन
हुआ। मंदराचल की घूर्षण (रगड़) से विष्णु की पीठ का जो हाल हुआ, उसका वर्णन
कूर्मपुराण, ब्रह्मपुराण एवं विष्णु पुराण में उल्लेखित
है -
‘‘परिभ्रमंत गरिमंग पृषुतः विभ्रत
तदावर्तनमादि कच्छपो मेनेडकण्डूयनम प्रमेयः’’
अर्थात् - अनंत शक्तिशाली
आदि कच्छप भगवान को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो।
विष्णु की पीठ छिल गई। अपने दूसरे स्वरूपों
से असुरों एवं देवताओं, दोनों में विष्णु ने शक्ति स्वरूप
प्रवेश करके समुद्र मंथन किया। यद्यपि देवताओं एवं असुरों ने मिलकर मंथन किया था, परन्तु सर्वाधिक पुरूषार्थ तो विष्णु को ही करना पड़ा था और समुद्र से
उत्पन्न चौदह रत्नों में से एक रत्न ‘‘लक्ष्मी’’ ने विष्णु का ही वरण किया। यानि सर्वाधिक पुरूषार्थ के कारण लक्ष्मी
विष्णु की दासी बन गई। संसार के पालनहार को लक्ष्मी रूपी धन प्राप्त हुआ।
हमारी पौराणिक संस्कृति हमें स्पष्ट बता
रही है कि ईमानदारी पूर्वक पुरूषार्थ करेंगे तभी हमें धन की प्राप्ति होगी अन्यथा
नहीं। कहा भी है -
1.कर्म प्रधान विश्व करि राखा। 2. सकल पदारथ है जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।। 3.उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न च मनोरथे।।
हम जिन पदार्थों की मांग करना चाहते हैं, उन्हें प्राप्त करने
के लिए धन की आवश्यकता होती है। धन कर्म करने से प्राप्त होता है। कर्म अर्थात्
पुरूषार्थ। पुरूषार्थ का आधार हमारे हाथ हैं। जिनसे हम परिश्रम करते हैं, अपने दो हाथों के सुरक्षित रहते ही कर्म करना संभव है। अतः भारतीय
संस्कृति में हर इंसान प्रातः उठकर परमात्मा से यह प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! हमारे ये दो हाथ सलामत रहें, ताकि हम इनसे कर्म करके
धन उपार्जन कर सकें तथा हमारी जीविका चला सकें। कर्म करने में इन हाथों के अग्रभाग
अर्थात् हथेलियां, अंगुलियां, अंगूठे प्रमुख है। इन्हीं की मदद से सुविधानुसार हाथों से काम किया जा
सकता है। एतदर्थ शरीर के ये अंग धन (लक्ष्मी) प्राप्ति का मुख्य आधार है। इसीलिए हमारे पुराणों में दैनिक जीवन में
महत्व देते हुए कहा है -
‘‘कराग्रे वसति लक्ष्मी’’
यही कारण है कि प्रतिदिन उठते ही हम हाथ के
इस अग्रभाग के दर्शन करके परमात्मा से अनुग्रहित होते हैं। हमारे हाथ के मूल में
ब्रह्मा अर्थात् भाग्य को माना गया है। यहां पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि हाथ
की रेखाओं का भाग्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये रेखायें तो वास्तव में हथेली को
आकार देने वाली कुंजियां है। भाग्य तो हाथ के इस अग्रभाग के सही सलामत रहने एवं
पुरूषार्थ करने से बनता है। अतः ये हाथ ब्रह्मा का निवास माना जाता है। जहां
ब्रह्मा है वहां सरस्वती दौड़ी आती है। इसीलिए हाथ के अग्रभाग का सम्मान इस प्रकार
माना गया है -
कराग्रे वसति लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्।।
तात्पर्य यह है कि दीपावली के पावन पर्व पर
लक्ष्मी पूजन के समय हम इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि जीवन में पुरुषार्थ ही धन
का स्रोत होता है। पुरूषार्थ के लिए कर्म की आवश्यकता होती है। अतः हम कर्म करें।
भाग्य के भरोसे न रहें। हमारे दोनों हाथ कर्म करने के माध्यम हैं। अतः येन-केन-प्रकारेण, अन्याय, बेईमानी, भ्रष्टाचार
के माध्यम से प्राप्त धन फलित नहीं होता है, अतः पुरूषार्थ को महत्व दें। ईश्वर आपके साथ है। पुरूषार्थी को फल अवश्य
मिलता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्म को महत्व दिया है -
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’’
यही है वास्तविक लक्ष्मी पूजा।
संदर्भ -: श्रीमद्भागवत
स्कंध 8, अध्याय 7एवं
रामचरित मानस
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