- शास्त्री कोसलेन्द्रदास
(
दधिमती लेखक परिवार की निष्ठावान एवं समर्पित विद्वत्मन्डली के उज्ज्वल एवं प्रखर
नक्षत्र, रामानंद विश्व विद्यालय में दर्शन साहित्य
के आचार्य, शास्त्री कोसलेंद्रदास ने दीपावली के विभिन्न
अर्थ एक दार्शनिक अंदाज में किये हैं। तम के विरुद्ध
युद्ध के लिए सन्नद्ध अनुशासित सैनिक की भांति अवली अर्थात पंक्ति बद्ध दीपों के
त्यौहार दीपावली के अबूझे,अछूते अर्थ एवं व्याख्या से
रू-ब-रू हों,विद्वान लेखक के गुदगुदाने वाले लेख के
जरिये-संपादक )
· दीपावली आ गयी है। धन व ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी के आगमन की
सूचना देती है यह तिथि। कहते हैं, दीवाली इतिहास में कई
सदियों से रंगरेलियां करती आ रही है। यही दीवाली अयोध्या में पादुका-प्रशासन से मुक्ति का उत्सव है। जनता उत्साहित और उल्लसित थी कि अब पादुका-पूजन के दिन लद गए। असली राजा राम और रानी सीता अयोध्या में पधार चुके
हैं। अतः अब चौदह साल के अंधेरे को हटाकर अमावस्या की रात को दीप जलाकर पूर्णिमा
में बदलना है। दीवाली पादुका-प्रशासन की समाप्ति का पर्व है।
लोक जीवन में दीवाली रामराज्य की विजय का त्यौहार है। पता नहीं, किसने इसका नाम 'दीपोत्सव' रख दिया? नाम निश्चय ही पुराना है, कालिदास-भवभूति से पुराना, रामायण-महाभारत से भी पुराना। संस्कृत में 'दीपोत्सव', हिन्दी में 'दीपावली' और 'दीवाली'।
· हमारी संस्कृति में बारह महीनों की व उनमें आने वाले सारे त्योहारों की
महिमा अपरंपार है। एक शृंखला जैसे सारे त्योहार एक-दूसरे से
जुड़े हुए है। कोई त्योहार उत्सव के रूप में मनाया जाता है तो कोई उपासना के रूप
में। संस्कृति के आराध्य राम और कृष्ण के जन्म भी उत्सव ही तो है। नवरात्रों का
चक्र जब आता है तो उपासना प्रारम्भ हो जाती है। आश्विन के नवरात्र में शक्ति
अर्जितकर मानव अभिमान व अज्ञान के प्रतीक रावण को विजयादशमी के दिन जला चुका है।
शक्ति से युक्त हो वह सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए तत्पर है। वह अपनी
संस्कृतियुक्त समृद्धि के सामर्थ्य को बढ़ाना चाहता है। आश्विन के कृष्ण पक्ष में
पितरों की और शुक्लपक्ष में देवताओं की श्रद्धा-वन्दना अब
संपन्न हो चुकी है। भारतीय महीनों में पवित्र कार्तिक आ चुका है। ऐसे में नववधू के
गृह-प्रवेश की भांति शोभा, गरिमा, पवित्रता व सुकुमारता के साथ त्योहारों की महारानी दीपावली आ गयी है। भारत
के सामाजिक व धार्मिक जगत में दीपावली सभी प्रकार के अत्यंत महत्वपूर्ण है।
· पांच दिनों तक अनवरत चलने वाले इस त्योहार में मुख्यतः धन सम्पति की
अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की पूजा करने का विधान है। लक्ष्मी वह जो अमृत-सहोदरा है। वह चंद्र सहोदरा है। वह समुद्र से पैदा होती है। श्री, सुख, शोभा, सौभाग्य, शांति, पवित्रता व हमारे लोकजीवन से जुड़ी वह
लक्ष्मी विष्णुपत्नी है। तभी तो, घनघोर काली रात में
प्रकट होकर वह स्वर्ण वर्षा कर रही है। वैदिक ऋषि ने उस लक्ष्मी को सुख, सौभाग्य की प्रदात्री धरती माता के रूप में देखा था। पर हमें यह मानकर
लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए कि यह लक्ष्मी विश्वमंगल विधायिनी शाश्वत शक्ति है। अतः
अमावस्या के हृदय में बैठी लक्ष्मी की प्राप्ति चरित्र व समर्पण से करनी है।
प्राचीन वर्ण व्यवस्था से रक्षाबन्धन ब्राह्मणों का, विजयादशमी
क्षत्रियों का, दीपावली वैश्यों का तथा होली अंत्यजों
का त्योहार माना जाता है। पर आज ये चारों त्योहार मानव मात्र के पर्व व त्योहार
है।
· ऋग्वेद में सरस्वती को वाक्-शक्ति एवं लक्ष्मी को
सौभाग्य व समृद्धि की देवी माना गया है। यजुर्वेद में भगवान विष्णु की दो पत्नियों
के नाम श्री और लक्ष्मी है। तत्व दृष्टि से एक होने पर भी ये दोनों अलग-अलग है। इन पांच दिनों में महालक्ष्मी की उपासना एकदम शास्त्रसम्मत है।
पूरे कार्तिकमास में दीपक जलाकर देवताओं को अर्पित करने चाहिए। श्रीविष्णुधर्मोत्तरपुराण
में कार्तिक में दीपदान का जोरदार महत्त्व वर्णित है। तभी तो, धन त्रयोदशी से भैयादूज तक हर घर में दीपदान पूरे उत्साह व श्रद्धा के साथ
किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति पूरे कार्तिक मास में दीपदान न कर सके तो भी इन
पाँच दिनों में अनिवार्य रूप से महालक्ष्मी के पधारने के सम्मान में दीप जलाने ही
चाहिए। व्यापारियों का वाणिज्य संवत् दीपावली से ही प्रारम्भ होता है। अतः
व्यापारी वर्ग दीपावली को लक्ष्मी पूजा सदियों से करते आ रहे हैं। कलम, स्याही व बही के रूप में विद्या की देवी सरस्वती का पूजन भी इस दिन होता
है। आदिपूज्य होने के कारण ऋद्धि-सिद्धि व शुभ-लाभ के साथ गणपति की पूजा तो अनिवार्य ही है। अतः इसी दिन गणपति-लक्ष्मी-सरस्वती इन तीनों की पूजा एक साथ होती है, यह तथ्य बड़ा पुराना है। एक अन्य प्रामाणिक कथा जो सनत्कुमारसंहिता में भी
पाई जाती है और वामनपुराण में भी। इस कथा के अनुसार भगवान् वामन ने कार्तिक कृष्ण
त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों में दैत्यराज बलि से सम्पूर्ण लोक छीनकर उसे
पाताल में भेज दिया था। तब बलि ने भगवान् विष्णु से यह याचना की थी, 'हे प्रभो! जो प्राणी इन तीन दिनों में मृत्यु
के देवता यमराज के लिए दीपदान करे, उसे यम की यातना न
भोगनी पड़े और उसके घर को लक्ष्मी कभी छोड़कर न जाए। बस, तभी से दीपोत्सव मनाने और यमराज के निमित्त दीपदान करने की परंपरा का
प्रारंभ हुआ। कहते हैं, इसी दिन विक्रम संवत् के
प्रवर्तक महाराज विक्रमादित्य दिग्विजय कर अपने राज्य उज्जैन को लौटे थे। उनके
स्वागत में प्रजा ने अमावस्या को दीप जलाकर उसे प्रकाश पर्व में परिणत कर दिया था।
तंत्रदर्शन में दीपावली की रात्रि मोहरात्रि के रूप में साधन-सिद्धि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व महिमामयी मानी गयी है।
· किसी दिन एक शुभ मुहूर्त में दिये, तैल व रूई
की बत्ती का अग्नि से संयोग आदिमानव ने पहले-पहल किया होगा।
वैसे ही, दिया जलाया जा सकता है। अंधकार भले ही समाप्त
न हो पर उससे जूझा तो जा ही सकता है। दीपावली याद दिलाती है, उस ज्ञान के छोटे से जलते दीपक की जो अंधकार से जूझता है, विघ्न-बाधाओं से लड़ता हुआ, संकटों का सामना करते हुए। अपने प्राणों का बलिदान कर प्रकाश को स्थापित
करने वाले ये दीपक धन्य है। दीपावली की रात मनुष्य के हाथ अंधकार से लड़ रहे हैं।
मानव द्वारा रचे गए दीपक ही इसकी लड़ाई के मुख्य अस्त्र-शस्त्र
है। पर वास्तव में, वे लोग कितने कायर है जो अंधकार को
महाबलवान् कहते हैं। हर वर्ष दीपावली आकर उन लोगों को कहती है, 'उठो! डरो मत, अंधकार
से लड़ो।' पर अनादिकाल से अज्ञानरूपी अंधकार से घिरे हम
ज्ञानरूपी प्रकाश को देख नहीं पाते। प्रकाश को प्राप्त करने की हमारी यात्रा
सदियों से अभी तक चल ही रही है। आओ! अज्ञान के अंधकार
को हटाकर ज्योतिस्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्न करें। प्रयत्न की इस
प्रक्रिया को ही भारतीय दर्शन में 'लक्ष्मीपूजा' कहते हैं... तमसो मा ज्योतिर्गमय।
36 बी, सरस्वती नगर, सुशीलपुरा,सोडाला, जयपुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके विचारों और सुझावों का स्वागत है -