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शनिवार, 10 नवंबर 2012

शक्ति की अनन्त स्त्रोतस्विनी-गीता

- सीताराम दाधीच


लेखक सुजानगढ़ के मूल निवासी हैं। आप हमारे लेखक परिवार के अग्रणी, आदरणीय सदस्य व विद्वान विचारक हैं।  आप शिक्षा विभाग राजस्थान को बतौर उपनिदेशक व ब्राह्मी विद्या पीठ लाडनूं को बतौर प्राचार्य अपनी सेवाएं दे चुके हैं )



    श्रीमद्भागवद्गीता सर्वकालीनसार्वजनिक एवं सार्वभौम ग्रंथ है। उसे मानव-निर्माण का विश्व-कोष कहा गया है । इसे श्रुतियों की रानी तथा समस्त शास्त्रों की स्वामिनी माना जाता है। पद्मपुराण में इसे 'एवमष्टाध्यायी वाड़्मयी मूर्तिरेश्वरीशब्दों द्वारा अठारह अध्यायों की वाणीयुक्त ईश्वरीय मूर्ति बताया गया है। स्वयं भगवान् शिवपार्वती से कहते हैंगीता के प्रथम पाँच अध्याय मेरे मुख हैंफिर दस अध्याय मेरी भुजाएँफिर एक उदर तथा शेष दो मेरे चरण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भी 18 वें अध्याय के चार श्लोकों में (68 से71 तकग्रन्थ की महत्ता का उल्लेख किया है।
       विश्व के विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में यह एकमात्र ग्रंथ हैजिसका अनुवाद व भाष्य संसार की प्रत्येक प्रमुख भाषा में उपलब्ध है। स्वामी श्री रामसुखदासजी की साधक संजीवनी तो समग्र देश में जन-प्रिय है हीश्री जयदयाल गोयंदका की तत्व-विवेचनीशंकर भाष्यरामानुज भाष्यज्ञानेश्वरी-गीता आदि विविध टीकाएँ सम्पूर्ण देश में समाहित है। ISCON  संस्थापक कृष्णभक्त स्वामी श्री प्रभुपादजी द्वारा प्रस्तुत टीका- BHAGWAT GITA- AS IT IS का तो इतना व्यापक प्रसार हुआ है कि इसका अनुवाद विश्व की 80 भाषाओं से भी अधिक में हो चुका है और इसकी करोड़ों प्रतियाँ बिक चुकी हैं। केलिफोर्निया के प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री geddes mac.gregor के शब्दों में – “ none is better loved in west than bhagavat gita”  ''पाश्चात्य देशों में गीता के समकक्ष जनप्रियता किसी ग्रन्थ को उपलब्ध नहीं है।'' गीता-प्रसार में गीताप्रेसगोरखपुर की भूमिका तो विशेष अभिनन्दनीय है ही। वर्तमान युग में लोगों की उत्सुकता है कि एक ही शास्त्र होएक ही ईश्वर होएक ही धर्म हो तथा एक ही कर्म हो। गीतामहात्म्य  का निम्नांकित श्लोक इस जन-आकांक्षा का उपयुक्त समाधान है।

''एकं शास्त्रं देवकीपुत्र-गीतम् एको देवो देवकी पुत्र एव ।
एको मंत्रः तस्य नामानि यानिकर्मच्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।''

       यूनान के विद्वान अरस्तू ने अपने शिष्य सिकन्दर को भारत से गीता लाने का विशेष आग्रह किया था। एक अंग्रेज पादरी द्वारा गीता को सब धर्म-ग्रन्थों के नीचे रखकर स्वामी विवेकानन्द को प्रदर्शित किया गयास्वामीजी तत्काल बोलेगीता ही आधार भूमि हैअतः सभी ग्रन्थ इस पर टिके है। प्रसिद्ध दर्शनिक थोरो एक बार निर्जन वन में खाट पर सोये हुए थे तो किसी ने पूछा –“ रात्रि के इस घोर अंधकार मेंइस बीहड़ बन में आपको शेर-चीते आदि हिंसक पशुओं का भय नहीं लगता “ ? उन्होंने तत्काल अपने सिरहाने से गीता निकालकर दिखाई और कहा-जिसके पास ऐसे ग्रन्थ की शक्ति होउसे भय किस बात का?
       लम्बे समय से ही सभी महापुरूषों ने गीता से ही प्रेरणा ग्रहण की है। चाहे वे किसी धर्म केकिसी जाति केकिसी भी भाषा के तथा किसी भी प्रदेश के क्यों न हो। जैसे दियासलाई की एक डिबिया में अनेक तीलियाँ होती हैतथा प्रत्येक में ही प्रज्वलन-शक्ति हैंपर प्रत्येक वैसे  ही गीता में सात सौ श्लोक हैंपर प्रत्येक श्लोक में प्रेरणा की अग्नि छिपी है।
       पलायन से जागने का नाम गीता है। विषाद को प्रसाद में बदलना ही इसका मुख्य संदेश है। प्रथम अध्याय का नाम ही विषाद-योग है। अध्याय-समापन पर ''विसृज्य सशरं चापंशोक-संविग्न मानसः शब्दों में अर्जुन के विषाद की रेखाएँ गहरी अंकित हो जाती हैं जो उसे धनुष-बाण छोड़ देने को विवश करती है।
       दूसरे अध्याय के आरंभ में ही हमें शक्ति की अनन्त स्त्रोतस्विनी के दर्शन होते हैजहाँ निम्नस्थ श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण के हृदय में एक नवीन स्पन्दन और ऊर्जा का संचार करते हैं। -

 क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थनैतत्वय्युपद्यते ।
 क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यंत्यत्तवोतिष्ठ परंतप ।।

''हे अर्जुननपुंसकता मत धारण करो। तुममें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतपहृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।'' इन प्रेरक शब्दों के बाद ही धीरे-धीरे अर्जुन का विषाद प्रसाद में बदलता है तथा अठारहवें अध्याय के अन्त में वह स्वीकारता है- ''नष्टो मोहःस्मृतिर्लब्धात्वत्प्रसादात  मयाऽच्युत''। अर्जुन का अंधकार हटता है। ''मैं कौन हूँ'' ?, मैं क्या हूँ,? का बोध होता है।



स्वामी विवेकानंद ने कहायदि गीता के इस एक श्लोक का ही पाठ प्रतिदिन किया जाता है तो संपूर्ण गीता के पाठ का लाभ प्राप्त होता हैक्योंकि गीता का संपूर्ण संदेश है-दुर्बलता का उपचार एवं समाधान, उसीको सोचते रहना नहींअपनी शक्ति और पौरूष को सोचना है, जो पहले से ही व्यक्तिमें विद्यमान है। स्वामी विवेकानन्दरवीन्द्रनाथ टैगोरलोकमान्य तिलकसुभाषचन्द्र बोसयोगीराज अरविंदमहात्मा गांधी आदि सभी गीता के इसी इंजक्शन से देश-स्वतंत्रता के लिए लड़े थे।
       निस्सन्देह आत्म-तत्व की महत्ता को उजागर करने वाला यह ग्रन्थ आत्म-स्वरूप को पहचानने की विशेष प्रेरणा देता है। तेहरहवें अध्याय की प्रथम पंक्ति के ''इदं शरीरं कौन्तेय'' शब्दों में मानो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझाने का संकेत किया है। अंगुली से 'इदंकहकर इशारा करते हुए बताया है कि यह शरीर अलग है, और तुम शरीरी-आत्मा से अलग हो। प्रमुख तत्व आत्मा हैजिसका शरीर आधार-पात्र है। जैसेमूल्यवान हीरा किसी डिबिया में रखा जाय तो महत्वपूर्ण हीरा ही हैडिबिया नहीं।
       हम सब जानते हैं, शरीर से आत्मा निकलते ही शव को अपने घर कोई कुछ समय भी रखना नहीं चाहता। अर्थी ले जाते समय वर्षा से बचने के लिए कोई भी मार्ग में दुकान या मकान पर चंद मिनट के लिए भी उसे रखने की अनुमति नहीं देता, क्योंकि शव में मुख्य तत्व, आत्मा विद्यमान नहीं है। गीता के दूसरे अध्याय में 'देही नित्यमबष्योऽहंदेहे सर्वस्य भारत''
       ''नित्यः सर्वगतः स्दाणुरचलोऽयं सवातनःआदि अनेक श्लोकों में आत्मा के स्वरूप की व्याख्या की गयी है। मृत्यु से भयभीत न होने के संदेश में निम्नांकित श्लोक विशेष सारगर्भित हैः-

अव्यक्तादीनि भूतानिव्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्त निधनान्येवतत्र का परिदेवना  ।। (2-20)

हे अर्जुनसमस्त प्राणी जन्म से पूर्व थे अवश्य, पर किस रूप मेंकहां थे ? वे अप्रकट थे। मरने के बाद भी वे उसी प्रकार अप्रकट हो जाने वाले हैं। वर्तमान जीवन केवल बीच का है,जो प्रकट दिखाई देता है, ऐसी स्थिति में जीवन के सम्बन्ध में चिंता क्यों की जाए ?
       गीता के अध्ययन के पश्चात् ही स्वामी विवेकानन्द ने सिंहनाद किया – “proclaim to the whole world with trumpet voice thou art of reservoir of omnipotent power. Arise,awake and manifest the within."   अर्थात्समग्र संसार में शंखघोष से घोषणा कर दो कि सर्वशक्ति के अनन्त स्त्रोत आप स्वयं हैं। उठेंजागें और अन्दर विद्यमान अपनी अनन्त शक्ति को मुखरित करें।

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