- तरुण कुमार दाधीच
भारतीय
शिल्प शास्त्रों, पौराणिक शास्त्रों व अन्य प्रतिमा विषयक
ग्रंथों में देव प्रतिमाओं के विविध स्वरूपों का शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है ।
इसके अलावा ’विष्णुधर्मोत्तर पुराण’, ’अपराजितयच्छा’,
’मत्स्य पुराण’, ’मानसार’, ’मयमत’, ’अग्नि पुराण’ रूप
मण्डन’, ’शिल्परत्न’ आदि अनेक ग्रंथों
में हमें लक्ष्मी के विविध स्वरूपों का उल्लेख मिलता है । लक्ष्मी के विविध रूपों
में उनका शक्ति स्वरूपा महालक्ष्मी रूप भी ग्रंथों में वर्णित हुआ है ।
पौराणिक ग्रंथों में लक्ष्मी को विष्णु की शक्ति एवं आत्मा माना गया है तथा जगत जननी मानकर इसकी पूजा अर्चना की परम्परा भी रही है । शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि इस देवी का आश्रय लेकर ही विष्णु ने ’सत्व’ को धारण किया । सम्भवतः इसी कारण विष्णु को अर्थ व न्याय, लक्ष्मी को वाणी व नीति के रुप में भी स्वीकारा गया ।
लक्ष्मी का मूल स्वरूप ’महामाया’ व विष्णु की भार्या का रहा है । श्रीमद्भागवत् में भी इसका उल्लेख है कि लक्ष्मी में विष्णु के सभी गुण समाहित है (विष्णु-पत्नि महामाये महापुरुष लक्षणे) । विष्णु को जगत का सृष्टि रचयिता माना गया है तो लक्ष्मी को विष्णु की सृष्टि । इसी तरह शास्त्रों में धनदात्री लक्ष्मी को शरीर-इन्द्रिय व अन्तःकरण का मिश्रित प्रतीक भी स्वीकारा गया है । विष्णु पुराण में भी लक्ष्मी व विष्णु के अन्तर्सम्बंधों को विविध संज्ञाओं से अभिव्यक्त किया गया है, कहा गया है कि लक्ष्मी, विष्णु के साथ संतोष की तुष्टि बनकर, काम रूप में इच्छा बनकर, यज्ञ के रूप में दक्षिणा बनकर, पुरोडाश के रुप में आज्याहुति घृत की आहुति बनकर, अग्नि के रूप में स्वाहा बनकर वातावरण को सुगंधित करना देवी की प्रकृति रही है ।
वैदिक ग्रंथों में विष्णु को चन्द्रमा की संज्ञा प्रदान की गई तो इसके समानान्तर लक्ष्मी को ’क्रांति’ स्वरूप में रचा गया है । इसी भांति गोविन्द को समुद्र व देवी लक्ष्मी को तरंग के रूप में विष्णु का आलिंगन किए अभिव्यक्त किया है । मधुसूदन इंद्र के संग, कमला शची बनकर विराजमान रहती है । विष्णु जब कुबेर स्वरुप में दर्शन देते हैं तो लक्ष्मी उनकी भार्या ’धूमार्णा’ के रुप में पूजित रही है । श्री केशव धन कुबेर होते हैं तब धनदात्री लक्ष्मी ’श्री’ स्वरूप के साथ-साथ ऋद्धि-सिद्धि की पूजा अर्चना की परम्परा दीपोत्सव पर देखी जा सकती है । हरि को स्वामी कार्तिकेय व महालक्ष्मी को देव सेना से भी संज्ञित किया गया है -
ज्योत्सना लक्ष्मीः प्रदीपऽसौ सर्वः सर्वेश्वरो हरिः ।
लताभूताजगन्माता श्री विष्णुर्द्रमसंज्ञितः
॥
विभावरी श्री दिवसो देवचक्रगदाधरः ।
नदस्वरुपी भगवांछीर्नदी स्वरुपस स्थिता ।
ध्वजश्च पुण्डरीकाक्षः पताकाकमलालयाः
॥
विष्णु पुराण के प्रथम अध्याय, आठवें सर्ग व 30 से 32 वे श्लोक से उद्धृत इन पक्तियों में भी लक्ष्मी को विष्णु का सर्जक व सहयोगी रूप में विश्लेषित किया है । इन पंक्तियों में सर्वेश्वर हरि को दीपक व देवी लक्ष्मी को ज्योति बताया गया है, जो उन्हें प्रकाशित कर तिमिर को प्रकाशमय करती है । इसी भांति वृक्ष स्वरूप विष्णु के लिए लक्ष्मी लता रुप में होती है तथा चक्रधारी विष्णु दिन है तो रात्रि का प्रतीक लक्ष्मी को उल्लिखित किया गया है। प्रभु को नंद तथा देवी को नदी स्वरूप में व्याख्यायित किया गया है, जो पूरक प्रतीक व आंतरिक सम्बन्धों की परिधि का आध्यात्मिक पक्ष है ।
विष्णु की शक्ति सिद्ध होने से
ही लक्ष्मी को पुराणों में शक्ति स्वरूपा’ देवी के रूप में
पूजने का उल्लेख है । ’भगवान विष्णु’ के
क्रिया कलापों का पर्याय बनी लक्ष्मी उनके हर अवतार में सहयोगी बनी है तथा यह भी
माना जाता है कि लक्ष्मी की शक्ति के बिना विष्णु शिथिल व प्रभावहीन रहते है । यही
कारण है कि विष्णु के प्रत्येक शुभ कार्य में लक्ष्मी उनकी सहयोगी रहती है । इसी
शृंखला में कहा जा सकता है कि विष्णु तब आदित्य रूप में प्रकट हुए तो लक्ष्मी ने
पद्म (कमल) से जन्म लेकर पद्मनाभा का रूप धारण किया तब लक्ष्मी ने साक्षात् पृथ्वी
के रूप में दर्शन दिए । अर्थात् लक्ष्मी विष्णु के दैवी शरीर के साथ दैवी बनकर एवं
मानसी शरीर के समय मानवी रूप में विष्णु की शक्ति व उत्प्रेरणा बनी रही ।
विष्णु व लक्ष्मी का संयुक्त स्वरूप ’लक्ष्मी-नारायण’ कहलाता है जो जगत के माता-पिता के रुप में पूजित है । इस तथ्य के लिए ’अग्नि पुराण’ के इस श्लोक का उल्लेख विषयगत एवं समीचीन प्रतीत होता है -
’’त्वाम्बा सर्वभूतानां देव देवो हरिः पिता ।
त्वयैतद् विष्णुना चाम्ब । जगत त्याप्तं
चराचरम् ॥’’
विष्णु का वक्षस्थल देवी लक्ष्मी का निवास स्थान माना गया है । चंचला लक्ष्मी का यही स्थान प्रेरणा व शक्तिदायक भी है । इस प्रकार शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी का यह पूजनीय स्वरूप है ।
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