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शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राम-रावण युद्ध

- देवदत्त शर्मा 



दशग्रीव रावण ने घोर तपस्या द्वारा इच्छित वरदान प्राप्त कर विश्वविजयी अभियान चलाया था। उसने अपने अहंकार के कारण सारे विश्व को त्रस्त कर दिया था। कौशल नरेश ‘अनरण्य’ का वध करके उसने अयोध्या पर विजय प्राप्त करके समस्त देवताओं के अस्तित्व पर आघात किया था। कौशल (अयोध्याराज्य ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया था। इसी कड़ी में राम वनवास (दण्डकारण्यरावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का एक हिस्सा था। राम को रावण के घनिष्ठ मित्र बाली के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। दो महाशक्तियों के टकराव में समस्त विध्वंशक  शस्त्रादि के प्रयोग से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का ह्रास  हुआ।
वस्तुतः राम-रावण युद्ध एक महायुद्ध था। महायुद्ध तभी होते हैं, जब दो महाशक्तियों के बीच राजनैतिक विवादों को सुलझाने की सारी संभावनाऐं मिट जाती है। प्रत्येक राजनीतिज्ञ युद्ध को टालने का भरसक प्रयास करता है। क्योंकि वह युद्ध के भीषण परिणामों को जानता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है।
फिर भी समय-समय पर महायुद्ध हुए हैंतथा भविष्य में भी होने की आशंकाओं से घिरा विश्व आज भी भयभीत है। हजारों वर्षों पूर्व हुए देव-दानव युद्धराम-रावण युद्ध तथा महाभारत का युद्ध विश्वयुद्ध ही थे। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए दो महायुद्धों के परिणाम तो हम अभी तक नहीं भूल पाए हैं। यही कारण है कि विश्व की बड़ी शक्तियां तृतीय महायुद्ध की भयावहता की कल्पना से कांप जाती है।
हर युग की राजनीति आगामी समय में इतिहास के रूप में जानी जाती है। अतः राम-रावण युद्ध को भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना अनुचित नहीं होगा। बिना राजनैतिक विवादों के महायुद्ध हो ही नहीं सकते और महायुद्धों के कारण यकायक पैदा नहीं होते हैं। अपितुसदियों तथा पीढ़ियों से पनपकर बड़े होते हैं। राम-रावण युद्ध के पीछे भी ऐसे ही कारण थे। अतः आवश्यक है कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम को अवतार पुरूष से परे एक शासक के रूप में देखना होगाक्योंकि वे एक देश (कौशलके राजा थे। वे तत्कालीन समय की एक महाशक्ति उत्तर कौशल राज्य (अयोध्याका प्रतिनिधित्व करते थे। भरतखण्ड के अधिकांश राज्य अयोध्या की सत्ता को स्वीकार करके उन्हें कर देते थे।
यही स्थिति लंकाधिपति रावण की थी। राक्षस जाति का वही एक शक्तिशाली प्रतिनिधि था। उत्तर कौशल के ही समान वह भी एशिया की महाशक्ति था। राम और रावण की शक्तियों को दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों के रूप में देखेंगे तो हमे उसको ऐतिहासिकता  का महत्व ज्ञात होगा। केवल धर्म और विश्वाससत्य-असत्य के विवाद में राम-रावण युद्ध की ऐतिहासिकता  की उपेक्षा करना इतिहास से दूर भागना है। मेरा आशय राम के प्रति श्रद्धालुओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं हैं। मैं तो केवल उस महायुद्ध की ऐतिहासिकता पर कुछ कहना चाहता हूं जिसे युद्ध ने समय को ऐसा मोड़ दिया कि उससे सबक मिला। सदियों तक शासकों ने उसे याद रखा तथा यथासंभव युद्धों को टाला। यही कारण था कि अगला महायुद्ध उसके पश्चात् सदियों के अन्तराल के बाद भी तब हुआजब उसका टालना अवतार पुरूष माने जाने वाले यदुवंशी श्रीकृष्ण के लिए भी संभव नहीं रह गया था।
आज की राजनीति कल का इतिहास बनती है। अतः राम-रावण युद्ध के ऐतिहासिक महत्व को जानने के लिए हमें इन दोनों महाशक्तियों की राजनैतिक परिस्थितियों को समझना होगा।
राजनीति में अपने प्रतिद्वंद्वी को जड़ से समाप्त करना कोई नई बात नहीं है। जब से सृष्टि बनीयही परिपाटी राजनीति में मिलती है।
उत्तर कौशल (अयोध्यापर इक्ष्वाकु कुल पीढ़ियों से एकछत्र राज्य करता रहा था। इस वंश में पराक्रमी राजा हुए थे। सम्पूर्ण भरतखण्ड पर उनका सदा ही प्रभाव रहा। अतः यह स्वाभाविक था कि जो भी उनके विरूद्ध सिर उठाताउसको कुचल दिया जाता। देवता तक अयोध्या नरेश की कृपा के आकांक्षी रहते थे।




परन्तु भारत के दक्षिणी छोर पर समुद्र पार लंका में राक्षस जाति का शासन था। वस्तुतः समुद्रगत जल की सुरक्षा के लिए नियुक्त रक्ष संस्कृति से व्युत्पन्न वर्ग ही राक्षस (रक्षकजाति थी। प्रजापिता ब्रह्मा ने इनकी नियुक्ति की थी। इनको आवास के लिए सजला-सुफला ‘लंका’ नामक स्थान उपलब्ध किया था। यह जाति अति शक्तिशाली एवं पराक्रमी सिद्ध हुई। इस जाति में माल्यवानसुमाली एवं माली नामक राक्षस तो इतने शक्तिशाली थे कि उनसे देवताओं को अपने अस्तित्व का ही भय हो गया था। अतः सबने संगठित होकर बड़ी कठिनाई से उन्हें लंका से भगाकर लंका पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु कालान्तर में सुमाली के दोहित्र (प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र विश्रवा का पुत्रदशग्रीव (रावणने अपने पराक्रम द्वारा देवताओं से लंका वापिस छीनकर वहां का अधिपति बन बैठा। रावण इतना पराक्रमी हुआ कि उसने विश्वविजयी बनने की कामना करके दिग्विजयी अभियान प्रारम्भ कर दिया। उसने सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया। सम्पूर्ण एशिया में रावण का डंका बजने लगा। इस अभियान में उसने उत्तर कौशल (अयोध्यापर भी आक्रमण किया तथा वहां के राजा ‘अनरण्य’ (राम के पूर्वजको मारकर विजय प्राप्त की।
उत्तर कौशल पर रावण की विजय देवताओं के अस्तित्व को चुनौती थी। यदि रावण का विनाश नहीं किया गया तोक्या होगासभी ने अयोध्या के नेतृत्व में रावण के विनाश की योजना बनाने में शीघ्रता की। अयोध्या के अधिपति ने रावण के विनाश का बीड़ा उठाया। परन्तु दशरथ की पीढ़ी तक भी कोई रावण को परास्त नहीं कर सका। यही कारण था कि रावण की अयोध्या से स्थाई शत्रुता हो गई। रावण भी सावधान हो गया। उसने देवताओं को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया। भरतखण्ड के नागरिकों पर उसने अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। वस्तुतः ऐसा करके वह अयोध्या को आन्तरिक मामलों में उलझा देना चाहता था। वह इतना दूरदर्शी था कि उसने अयोध्या व लंका के मध्य दक्षिणी भारत के ‘दण्डक क्षेत्र’ में अपनी सैनिक चौकी भी स्थापित कर ली। अपनी योद्धा बहिन ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में खर-दूषण को सेनापति बनाकर अपनी सेना रख छोड़ी। इस प्रकार से भरतखण्ड में घुसपैठ करके उसने अपनी सैनिक शक्ति काफी मजबूत कर ली थी। यहां से उसने देवता वर्गऋषियों आदि पर अत्याचार करके अपना आतंक फैलाया। रावण की यह सैनिक चौकी रावण को भरतखण्ड की हर प्रकार की सूचना देती थी।
इधर अयोध्या में रघुवंशी दशरथ का समय था। उसने अपने पूर्वजों के इस प्रण को पूरा करने को कार्यरूप  दिया। दशरथ ने रावण के विनाश में सक्रियता दिखाई। वे भरतखण्ड के अगुवा बन गए। रावण का सामना करने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राम तथा लक्ष्मण को तत्कालीन शस्त्रविशारद् ‘विश्वामित्र’ के सान्निध्य में शस्त्र विद्या में पारंगत कराया। स्वयं विश्वामित्र भी रावण के अत्याचारों से परेशान थे। उन्होंने रावण के विनाश की स्वयं योजना बनाकर राम को इस योग्य बना दिया कि वे रावण का वध कर सकें। कालांतर में राम-लक्ष्मण को सीता सहित जन-मानस को रावण के विरूद्ध तैयार करने हेतु विविध राज्यों में भेजा। बहाना यह था कि उन्हें वनवास दिया गया है। वस्तुतः राम का कथित वनवास रावण के विरूद्ध सैनिक अभियान का ही एक हिस्सा था। वनवास के आदेश में स्पष्ट था कि राम को सीधे ‘दण्डकारण्य’ में जाना है। वहीं पर रावण ने मोर्चा ले रखा था। उस काल में ऋषि-मुनि शासकों को परस्पर संपर्क में लाने का माध्यम थे। सारा सम्पर्क सूत्र वे ही थे तथा उन्हें राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते थे। अतः वन में रहकर भी राम केवल वनवासी नहीं थे। वल्कल पहनकर भी वे राज्य प्रतिनिधि थे। बालि के वध के समय राम ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘किष्किंधा’ रघुवंशियों के ही अधिकार में है तथा भारत की तरफ से उन्होंने बालि को दण्ड इसलिए दिया है कि वह अयोध्या की राजनीति के प्रतिकूल सिद्ध हुआ है।’’
राम ने भी अपना डेरा ‘दण्डकारण्य’ में ही डाला जहां पर ‘शूर्पणखा’ के नेतृत्व में रावण की सैनिक चौकी थी। पंचवटी नामक वह स्थल प्रसिद्ध था। वहां से राम भी रावण की हर गतिविधियों का ध्यान रखते हुए आदिवासी जन-मानस के सहयोग से सैनिक तैयारी करने लगे। अयोध्या यहां से इतनी दूर थी कि वहां से यहां जैसी तैयारी करना संभव नहीं था। यहीं पर रहकर राम ने उस क्षेत्र के आदिवासियों को सैनिक शिक्षा भी दी तथा उनके मन में राक्षसों के भय को दूर किया। उन्हें अपने अनुकूल बनाया। रावण को राम की इस कार्यवाही की पल-पल की जानकारी मिल रही थी। उसने राम की शक्ति को कमजोर करने के भरसक प्रयास किए। कई बार खर दूषण ने राम पर आक्रमण कियापरन्तु राम ने उनका वध कर दिया। स्वयं शूर्पणखा को अपनी जान बचाकर लंका को कूच करना पड़ा। अन्ततः रावण ने कूटनीति से काम लिया। उसने राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया। यह अपहरण विशुद्ध रूप से राजनीतिक अपहरण था ताकि राम का ध्यान सीता की तरफ बंट जाय तथा उनकी स्थिति कमजोर हो जाये। कुछ समय के लिए राम की ऐसी स्थिति हो भी गई थीपरन्तु राम ने सीता की खोज के साथ रावण के विरूद्ध अपना अभियान जारी रखा। रावण ने सीता को लंका के सर्वश्रेष्ठ उद्यान अशोक वाटिका में रखा जिसमें राज्योचित सुख-सुविधाऐं थीपरन्तु सीता ने उनका उपयोग नहीं किया। लेकिन रावण ने सीता के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं किया। वह सामाजिक मर्यादाओं को राजनीति में नहीं घसीटना चाहता था। उसने सीता को पूर्ण सम्मान दिया। हांउस पर यह दबाव अवश्य डाला कि वह राम को बाध्य करे कि `वे रावण से दुश्मनी न रखे। सीता ने राम के सम्मान की रक्षा करते हुए रावण की बात नहीं मानी। यही कारण था कि युद्ध समाप्ति तक सीता को रावण की कैद में रहना पड़ा।


ऐसा राजनैतिक अपहरण नई बात नहीं थी। आज भी ऐसे अपहरण विश्व राजनीति में विद्यमान है।
रावण के विरूद्ध राम के अभियान के किष्किंधाधिपति वानर जाति के शासक बालि ने राम का प्रतिरोध कियाक्योंकि बाली की रावण से मित्रता थी। उसकी मित्रता के कारण रावण ने दण्डक वन में अपनी सैनिक चौकी स्थापित की थी। वरना रावण ऐसा कदाचित नहीं कर सकता था। (जैसा कि आज पाकिस्तान में अमेरिका जमा हुआ हैराम ने बाली के भाई सुग्रीव को अपनी ओर मिलाकर बाली का वध कर दिया तथा उसी की सेना की मदद से सीता का भी पता लगवाया। वानर जाति योद्धा जाति थी। हनुमानजामवन्तनलनील जैसे यौद्धा उसकी सेना में थे जो आगे चलकर राम-रावण युद्ध में राम को विजय दिलाने में प्रमुख सिद्ध हुए।
इनकी ही सहायता से राम ने लंका पर पूर्ण तैयारी के साथ चढ़ाई करने से पूर्व रावण से शांति वार्ता करने का प्रयास किया था ताकि युद्ध टाला जा सके। परन्तु रावण अहंकारीस्वाभिमानी एवं महत्वाकांक्षी था। वह जानता था कि देवता उसका अस्तित्व समाप्त करना चाहते हैं। उसे विश्वास था कि वह देवताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं पराक्रमी हैअतः युद्ध में कोई उसे परास्त नहीं कर सकता। उसने घुटने नहीं टेके तथा राम द्वारा दी गई युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिया।
अन्ततः राम-रावण के मध्य महायुद्ध हुआ। इस युद्ध में हर प्रकार के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग हुआ। ये शस्त्रास्त्र विश्व विध्वंशक थे। आज की परिभाषा में कहा जाय तो परमाणु बम से लेकर मिसाइलों तक का उपयोग हुआ। उस समय इस प्रकार के युद्ध मायावी युद्ध के नाम से प्रचलित थे। युद्ध पृथ्वी पर एवं आकाश में भी हुआ। ज्वलनशील अस्त्रों के उपयोग से सर्वत्र विनाश हुआ। अंत में रावण तथा राक्षस जाति का अस्तित्व समाप्त हुआ तथा देवताओं के पक्ष में राम को विजय हासिल हुई।
परन्तु इस महायुद्ध के विनाश से विजयी पक्ष भी नहीं बच सका। क्योंकि शस्त्र शत्रु-मित्र के बीच भेद नहीं करता है। शस्त्र तो जिस पर गिरेगा उसी का विनाश करेगा। रावण की सेना द्वारा प्रयोग किए गए दिव्यास्त्रों से वानर जाति भी नष्ट हुई। यह बात गलत है कि राम के पक्ष में कोई हानि नहीं हुई।
हांइस महायुद्ध ने राक्षसों के अत्याचारों से मुक्ति दिला दी। जिस प्रकार से बीसवीं सदी में जर्मनी से परास्त करके यूरोप में नाजी पार्टी के अत्याचारों से मुक्ति मिली थी।
वास्तव में राम-रावण युद्ध दो महाशक्तियों का टकराव थाजिसके बीज स्वयं रावण ने ही बोये थे। इस महायुद्ध ने युद्धों को ऐसा विराम दिया कि सदियों पश्चात् ‘‘महाभारत’’ ही अगला महायुद्ध था।
राम-रावण के युद्ध को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर ऐसा ही माना जायेगा कि पृथ्वी पर घटित होने वाली घटनाऐं अलौकिक न होकर वास्तविक थी। राम-रावण भी अलौकिक नहीं थेअपितु तत्कालीन राजनीति के अंग थे।

(लेखक रेवेन्यू बोर्ड अजमेर
, राजस्थान में वकालत करते हैं एवं इतिहास एवं पौराणिक वांग्मय पर   शोध परक लेखन में आपकी विशेष रुचि है)


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