-देवदत्त शर्मा
(कई बार जो सत्य हम जानते
हैं उसे ही अंतिम एवं निरपेक्ष सत्य मान बैठते है, पर
ऐसा नहीं होता |. ज्यों ही हमारी जानकारी के परे कोई
नयी बात हमारे समक्ष उद्घाटित होती है, वह हमें पहले स्तंभित करती है, फिर चकित एवं
विस्मित करती है एवं अंत में हमें मुदित करती है. प्रस्तुत
खोज परक लेख में राक्षस राज रावण से सम्बंधित कुछ नवीन
जानकारियों से हमें रू-ब- रू
कर रहे हैं। देवदत्त शर्मा बाल की खाल निकालने वाले अर्थात वकील हैं (रेवेन्यु
बोर्ड अजमेर में), उस पर प्रखर विद्वान् अर्थात करेला
और नीम चढ़ा तो आनंद लीजीये इस अभिनव रचना का-सम्पादक)
उपनिषद्, वेद, पुराण, धर्मशास्त्र, इतिहास आदि ग्रन्थों में कई मानव जातियों का उल्लेख है। यथा - देवता, दैत्य, राक्षस, किन्नर, यक्ष, नाग
आदि । साधारणतः दैत्यों, राक्षसों तथा दानवों को एक ही
कोटि में मान लिया जाता था। परन्तु ये सभी पृथक-पृथक जातियां
है। देवता और दैत्य तो रक्त संबंधी थे।
राक्षस जाति का जहां तक प्रश्न है, यह शब्द जातिगत न
होकर कर्म के आधार पर है। राक्षस जाति प्रारम्भिक दृष्टि से श्रेष्ठ जाति थी, परन्तु शनैः-शनैः अत्याचारियों की प्रवृत्ति आ जाने
के कारण बदनाम हो गई। धर्मशास्त्रों एवं पुराणों
में लंकेश रावण को राक्षसराज कहा गया है। इस जाति
में उसे सर्वाधिक सम्मानित माना गया। परन्तु सत्य यह है कि रावण राक्षस वंश का
नहीं था। राक्षसों की उत्पत्ति एवं उनके अस्तित्व की कहानी ही अलग है।
सृष्टि के नियंता ब्रह्मा ने समुद्रगत जल
की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्राणियों को उत्पन्न किया। इन
प्राणियों में से कुछ ने जल की रक्षा की जिम्मेदारी ली तो, कुछ ने जल के यक्षण (पूजा) करना स्वीकार किया। जिन प्राणियों ने
रक्षा का भार लिया वे राक्षस कहलाये तथा जिन्होंने यक्षण (पूजन) स्वीकार किया, वे यक्ष कहलाये। इस प्रकार राक्षस और यक्ष दो वर्ग हो गए। सृष्टि के हिसाब
से देखा जाय तो राक्षसों ने पवित्र कार्य की जिम्मेदारी ली थी। जल की रक्षा सारे
विश्व के लिए हितकर थी। इस परिप्रेक्ष्य में राक्षस जाति पवित्र जाति थी।
राक्षसों का प्रतिनिधित्व ‘हेति’ एवं ‘प्रहेति’ नामक
दो भाईयों ने किया। ये दोनों दैत्यों के अधिपति ‘मधु-कैटभ’ के ही समान शक्तिशाली सिद्ध हुए। ‘प्रहेति’ धर्मात्मा था, परन्तु ‘हेति’ ने
राजनीति को स्वीकार किया ‘हेति’ ने अपने राजनैतिक संबंध बढ़ाने हेतु ‘काल’ की पुत्री ‘भया’ से
विवाह किया। उसके ‘विद्युत्केश’ नाम का पुत्र हुआ। उसका विवाह सन्ध्या की पुत्री ‘सालकटंकटा’ से हुआ। परन्तु सालकटंकटा ऐयाश औरत
थी। जब उसके पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसने लावारिस छोड़ दिया। विद्युत्केश ने भी उस
पुत्र की परवाह नहीं की। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान शिव एवं मां पार्वती की
नजर उस नवजात पर पड़ी। उन्होंने उसे सुरक्षा प्रदान की। नवजात शिशु को त्याग देने
के कारण मां पार्वती ने शाप दिया कि अब से राक्षस जातियाँ जल्दी गर्भ धारण करेंगी और उत्पन्न बालक तत्काल बढ़कर माता के ही समान अवस्था को प्राप्त होगा।
संभवतः इसी कारण राक्षस जाति का विकराल रूप संसार में आया। इसके पूर्व इस जाति में
शारीरिक आकर्षण एवं कांति विद्यमान हुआ करती थी।
विद्युत्केश एवं सालकटंकटा का परित्यक्त पुत्र ‘सुकेश’ के
नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिव के वरदान के कारण उसे अभय था तथा शिव ने उसे एक दिव्य
आकाशचारी विमान भी दिया। अतः वह निर्भीक होकर
सर्वत्र विचरण करने लगा। सुकेश ने गंधर्व कन्या देववती से विवाह किया। देववती से
सुकेश के तीन पुत्र हुए जिन्होंने राक्षस जाति में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। ये
थे :
1. माल्यवान
2. सुमाली
3. माली
इन्हीं में से ‘सुमाली’ लंकाधिपति रावण के नाना थे। इन तीनों भाईयों ने वरदान और ऐश्वर्य प्राप्त
करने के लिए घोर तपस्या की तथा ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। इन्होंने ब्रह्माजी से
भाईयो का परस्पर स्नेह बना रहने तथा शत्रुओं पर सदा विजयी रहने का वरदान प्राप्त
कर लिया। यही कारण था कि इन तीनों भाईयों में कभी फूट पैदा
नहीं हुई। आपस में इन्होंने कभी लड़ाई नहीं की। अपितु, वरदान
के प्रभाव से अंहकारी हो गये और देवताओं तथा असुरों को
कष्ट देने लगे।
इन्होंने विश्वकर्मा से त्रिकूट पर्वत के
निकट समुद्र के किनारे लंका का आवास प्राप्त किया। इस प्रकार लंका पर सर्वप्रथम ‘राक्षसो’ का आधिपत्य स्थापित हुआ। यह लंका सजला, सुफला
धरित्री थी। धन-वैभव की कोई कमी नहीं थी। यहां पर रहते हुए
इन तीनों राक्षसों ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना आतंक फैला दिया। ऐसा प्रतीत होता है
कि इन्होंने विश्व विजय की कामना कर ली थी। इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने हेतु
स्वयं ‘विष्णु’ ने इनसे
युद्ध किया। एक समय तो सुमाली ने विष्णु को परेशान ही कर दिया, परन्तु विष्णु ने पूर्ण शक्ति से इन राक्षसों को हराकर इन्हें लंका से
खदेड़ दिया। तीनों राक्षस अपनी जाति सहित रसातल में जा बसे।
इन्हीं तीनों भाईयों के वंश से राक्षस जाति
का विकास हुआ। आगे जाकर रावण के प्रबल महारथियों में इन्हीं के वंशज उसके सहायक
बने। उन्हीं के बलबूते पर रावण ने विश्व विजय का अभियान प्रारम्भ किया था। इनके
वंश के प्रमुख बलवानों में माल्यवान के - वज्र, मुष्टि, धिरूपार्श्व, दुर्मुख, सप्तवहन, यज्ञकोप, मत्त, उन्मत्त, नामक
पुत्र तथा अनला नामक कन्या हुई। सुमाली के प्रहस्त, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राश, दण्ड, सुपार्श्व, सहादि, प्रधस, भास्कण नामक पुत्र तथा ‘रांका’, ‘पुम्डपोत्कटा’, ‘कैकसी’ एवं ‘कुभीनशी’ नामक
पुत्रियां हुई। ‘कैकसी’ ही लंकेश
रावण की माता थी। ‘माली’ के - अनल, अनिल, हर और
संपात्ति नामक चार पुत्र हुए। रावणवध के पश्चात् लंकाधिपति बने विभीषण के ये ही मंत्री बने थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या रावण भी
राक्षस था ? साधारणतः जो जनमानस उसे भी ‘राक्षसराज’ ही के रूप में जानते हैं। परन्तु
सत्य यह है कि रावण स्वयं राक्षस जाति का नहीं था। राक्षसों का अधिपति बनने के
कारण वह राक्षसराज और लंका का अधिपति बनने के कारण लंकेश कहलाया। रावण नाम भी उसका
विशेषण है, न कि संज्ञा। उसका असली नाम तो दशग्रीव है।
रावण नाम क्यों पड़ा, यह एक पृथक कहानी है।
फिर, रावण कौन था ? लंका का राज्य उसे कैसे मिला ? यह प्रश्न
मन में जिज्ञासा पैदा करता है।
प्रजापिता ब्रह्मा के पौत्र ‘पुलस्त्य’ ऋषि थे। उन्हें ‘विश्रवा’ मुनि के नाम से जाना जाता है। ये ही दशग्रीव (रावण) के पिता थे। इसीलिए रावण को पौलस्त्य भी कहा गया है। पुलस्त्य ऋषि बड़े
धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इनके ब्राह्मण होने के कारण पितृकुल से रावण ब्राह्मण
था। विश्रवा की पुत्री भरद्वाज मुनि की पुत्री थी जिससे कुबेर का जन्म हुआ। कुबेर
भी बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। इन्हें लोकपाल का पद मिला। इससे पहले यम, इन्द्र एवं वरूण ही लोकपाल हुए थे।
जब माल्यवान, सुमाली, माली आदि राक्षसों को विष्णु ने परास्त कर दिया एवं वे लंका छोड़कर रसातल
में चले गए, तब ब्रह्मा ने खाली हुई लंका कुबेर को सौंप
दी। इस प्रकार लंका राक्षसों के हाथ से निकलकर लोकपाल के अधीन हो गई। लोकपाल कुबेर
रावण का सौतेला भाई था।
राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी के विवाह का
जब प्रश्न उठा तो सुमाली ने राक्षस जाति की भलाई के लिए तपस्वी विश्रवा से ही
कैकसी से विवाह कराना चाहा। इसलिए कि, विश्रवा के वंशज थे। सुमाली को आशा थी
कि इनसे वैवाहिक संबंध स्थापित करके राक्षसों का भला किया जा सकता है। सुमाली ने
कैकसी के सम्मुख अपनी इच्छा व्यक्त की जिसे कैकसी ने स्वीकार कर लिया तथा सान्ध्य
बेला में वह विश्रवा मुनि के पास गई। उस समय विश्रवा अग्निहोत्र कर रहे थे। यह
बेला भयंकर थी। जब विश्रवा को कैकसी के मन्तव्य का पता चला तो मुनि ने कहा कि
तुम्हारी इच्छा पूरी होगी परन्तु तुम कुबेला में आई हो अतः तुम्हारे पुत्र भयंकर
दुराचारी एवं क्रूर स्वभाव वाले होंगे। उनका राक्षसों के साथ ही प्रेम रहेगा।
इस प्रकार कैकसी ने दुःखी मन से विश्रवा से
निवेदन किया कि मुझे दुराचारी पुत्र नहीं चाहिए। विश्रवा ने उसकी विनम्रता से
प्रसन्न होकर कहा कि उसका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्मा एवं ब्रह्मा के समान वंश वाला
होगा।
कालान्तर में कैकसी ने प्रथमतः दशग्रीव (रावण), दूसरी बार कुम्भकर्ण, तीसरी बार शूर्पणखा (पुत्री) तथा चौथी बार विभीषण को जन्म दिया।
विभीषण धर्मात्मा हुए जबकि शेष तीनों राक्षसी एवं क्रूर स्वभाव के साबित हुए।
कैकसी एवं विश्रवा का विवाह यह सिद्ध करता
है कि राजनैतिक स्तर पर वैवाहिक संबंध पौराणिक परम्परा रही है।
इस प्रकार रावण पितृपक्ष से ब्रह्मा के वंश
को होने के कारण ब्राह्मण था। परन्तु माता राक्षसकुल की होने के कारण एवं बाद में
सुमाली द्वारा रावण को राक्षसों का अधिपति बना देने के कारण वह राक्षसों का ही
हितैषी हो गया। सुमाली ने ही रावण को प्रेरित करके राक्षसों की मूल राजधानी लंका
पर पुनः आधिपत्य कराया। चूंकि कुबेर लोकपाल था, अतः रावण ने उससे
लंका छीन ली वरना भ्रातृप्रेम तो उसमें भी था। भाई के रूप में वह कुबेर को लंका से
नहीं हटाना चाहता था, परन्तु सुमाली की जिद्द के कारण
ही उसने ऐसा किया।
दशग्रीव का नाम रावण क्यों पड़ा? इसके बारे में कहा
जाता है कि विविध शक्तियां प्राप्त करके बलशाली होने पर रावण ने ‘कैलाश पर्वत’ को ही अपनी भुजाओं पर उठा लिया।
इस पर क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने पैर के अंगूठे से ही
कैलाश को दबाकर रावण की भुजाओं को पर्वत के नीचे दबा दिया व उसके अहं को तोड़ा।
भुजाऐं पर्वत के नीचे दबने पर पीड़ा के कारण दशग्रीव ने जोर से रोदन (आर्तनाद) किया। तीनों लोक उसके रोदन से कांप
उठे। रावण ने मन ही मन भगवान शिव की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर रावण की
भुजाओं को मुक्त किया तथा चन्द्रहास दिया। उसके रोदन के कारण शिव ने दशग्रीव को ‘‘रावण’’ की संज्ञा दी। तभी से दशग्रीव का केवल ‘‘रावण’’ नाम ही प्रचलित हो गया। यही वह रावण था
जिसे मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने मारकर पृथ्वी को राक्षसों के आतंक से मुक्त किया।
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