( जीवन दर्शन )
( है तो यह विडम्बना पर है सच
कि अधिकांश व्यक्ति अपने दुःख से दुखी कम व दूसरों के सुख से दुखी ज्यादा होते हैं,. ऐसे परसुख
कातर व्यक्तियों एवं उनकी मनोवृति को केन्द्र में रख कर व्यंग्य लेखन प्रस्तुत है
श्री रामकुमार जी तिवाड़ी का,जो मूलतः लाडनूं, जिला नागौर, राजस्थान निवासी एवं सेवा निवृत शिक्षक
हैं- संपादक )
इस शहर में हमारी स्मृतियां जुड़ी हुई है। प्रवेश करते-करते बहुत भला लगा। ऊँची
इमारतों को देख कर लगा शहर प्रगति पर है। सम्पन्नता बढ़ रही है। शास्त्री जी के
यहां पहुंचते-पहुंचते सारी खुशियां किरकिरी हो गई। पूरा शहर
तरक्की करे हमें मंजूर है। परन्तु शास्त्री जी तो हमारे मित्र हैं, उनके दो मकान, हमारे चुभन होने लगी। परन्तु
करें भी क्या ? कुछ घुमा फिरा आलोचना कर मन को
शान्त किया।
हजारों पुलिस अधिकारी हैं, और भी बनेंगे। गत वर्ष
वर्मा जी का पुत्र थानेदार बन गया। यह बुरा हुआ। वर्मा तो हमारा परम मित्र है,
उनका पुत्र हमारे पुत्र से अधिक अर्जित करे, यह
सहजता से कैसे स्वीकार हो सकता है ? संगठन में
अनेक पदाधिकारी है। जबसे मिश्रा जी चमके हैं, और चुने गये
हैं, हमारी बारह बज गई है। क्योंकि ये हमारे निकटस्थ है, और निकटस्थ की सफलता से हमारी छाती पर सांप लोटना स्वाभाविक ही है। दुनिया
सम्पन्न हो जाय, हमें तो आज तक कभी दुःख हुआ ही नहीं,
परन्तु हमारी आंखों के सामने हमारा कोई निकटस्थ एवं घनिष्ठ मित्र
सम्बन्धी सफल होता है, तो हम ऊपर से तो बहुत प्रशंसा कर देते
हैं, पर अन्दर की बात तो हर एक को कैसे बतायें कि हमारे
खून सूखने का एक कारण यह भी है।
प्रयोगशाला में एक खुले मुँह का जार देखा तो पूछा - भाई इस जार का मुंह खुला है, अन्दर के जन्तु बाहर
निकल जायेंगे। उत्तर था – नहीं, ऐसा नहीं होगा। इस जार में केंकड़े हैं। ज्योंही एक केंकड़ा ऊपर उठने का
प्रयास करता है, दूसरा उसकी टांग खींच लेता है।
अपनी भी यही गति है। हमसे छूटेगी भी नहीं, क्योंकि
इसे हम बचपन से पालते आ रहे हैं। हमने पहली बार हमारा परीक्षा परिणाम अखबार में
देखा। हमारे रोल नम्बर से पहले हमारी सहपाठी स्वामी के रोल नम्बर दिख गये। हमें तो
वहीं सांप सूंघ गया। हम उत्तीर्ण हों या नहीं, परन्तु ये
अनुत्तीर्ण हो जाता तो भय नहीं रहता। अपने एक मित्र हैं, पत्र-पत्रिकाओं में बहुत छपते हैं, सच पूछो तो हमें
कोई बीमारी नहीं है। फिर भी हम दुबले होते जा रहे हैं। लाखों साहित्यकार हैं,
और बनेंगे परन्तु जब से हमारा मित्र इस श्रेणी में आया है, हम सूखते जा रहे हैं।
ये तो कुछ उदाहरण मात्र है। बाकी हम ईर्ष्या में आकंठ डूबे हुए हैं। पक्षी
आसमान में बहुत ऊँचाई पर उड़ रहा है, परन्तु उसकी दृष्टि
जमीन की गंदगी पर है। जरा आत्म-चिन्तन करें, कहीं हम भी ऐसी ही उड़ान तो नहीं भर रहें हैं। और लगे कि कुछ ऐसा ही है,
तो हम किसका भला करने जा रहे हैं ? यह
तो व्यक्तित्व का एक लुभावना छिद्र है, जिसके रहते
व्यक्तित्व का विकास बालू में से तेल निकालने के समान है। हम एक ऐसे दलदल में फंसे
जा रहे हैं, जहां पास में एक सरोवर भी है परन्तु हमें सरोवर
के पास जाना पसन्द नहीं। हम चाहते हैं दूसरे लोग भी दलदल में फंसे।
कैसी विडम्बना है। आवश्यकता दलदल से निकलने की है, उसे सुखाने की है। परन्तु हमारा मन्त्व्य सरोवर को ही सुखाने का है। उसे
भी दलदल बनाने का है। हमारा जीवन चेतन है। यहां हर एक को चेतना है। गाड़ीवान का
पशु लड़खड़ाता है तो वह कहता है, चेत! चेत! हम भी लड़खड़ा रहे हैं, पर चेतना नहीं चाहते। आवश्यकता चेतने की है दूसरों के प्रति दुर्भावना
उखाड़ फेंकने की है। आइये, अपने आस पास के परिवेश से प्रेम
करें, स्नेह लुटायें।
हम जो वस्तु बांटते हैं। वही हमारे पास आती है। हंसी और प्रेम बांटने
वालों को ईश्वर हंसी और प्रेम ही भेजता है। हम सबने दुकाने खोल रखी है, उसी का स्टॉक बढ़ता जाता है। हम जलन, ईर्ष्या, असन्तोष, कुढ़न की दुकान खोल कर अपने लिए प्रेम, स्नेह, संतोष का वर प्राप्त करना चाहते हैं।
इतना बड़ा झूठ चल नहीं सकता यह हमें लील जायेगा।
अतः हमें अपनों के लिए स्नेह के फूल खिलाने ही होंगे। इमर्सन ने ठीक कहा
था,‘‘जाओ अपने बीवी, बच्चों को
प्यार करो, अपने लकड़हारे से प्यार करो।’’
सीधा सा, सरल सा मूल्यांकन है। हमें अगर पड़ौस की
खुशियां अच्छी लगती है, तो हमारी गाड़ी पटरी पर है। आगे बढ रही है, और अगर द्वेष है तो हमारी गाड़ी पटरी छोड़
रही है। हमारा पतन तो निश्चित है ही परन्तु एक ऐसी बदबू भी छोड़ जायेंगे, जिसे फैलाने का अधिकार हमें कतई नहीं था।
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